ग़ज़ल - जिन्दगी क्यूँ तमाशा बन गयी

तेरी आरजू  तकाजा बन गयी
जिन्दगी क्यूँ तमाशा बन गयी

तिश्नगी ने दरिया तराश लिया
अन्धेरा चीर उजासा बन गयी

लुटेरों की बस्ती, कुछ सकून
संगत शेख़ निराशा बन गयी  

रोजी रोटी रोज की चक-चक
भूख अबके दिलासा बन गयी

सैलाबे हुस्न दीदावर क्यूँ हुआ
दरिया तबसे प्यासा बन गयी

जिन्दगी ने तवज्जों क्या दिया
ये कायनात जरा-सा बन गयी

फिक्र खुद का किया जब ‘नादाँ’
जिन्दगी गुल खिला-सा बन गयी 

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