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यह जो कविता है ....

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मेरे इश्क़-ए-नाकाम का किस्सा भी कितना हसीन था ...

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कुछ खामोशियाँ दर अस्ल बेआवाज़ होती हैं...

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जाने किसकी तलाश में

जाने किसकी तलाश में सफ़र तमाम करते रहे जीने की आरजू लिए हम हर मोड़ पर मरते रहे इश्क़ में हसरतें मुठ्ठी से रेत सी फिसलती रहीं उम्र भर ख्वाहिशों का खाली मकान भरते रहे आईना या अक्स किससे ये मुकम्मल न हुआ बेमक़सद ही हम खुद से वो लड़ाई करते रहे जुर्म कर हर जुर्म बाउसूल कुबूल किया हमने अपने ही उसूलों की आग में हमही जलते रहें जुगनू तितली ख़्वाब नागफनी सब ने खेला यूँ जीतने साँचे मिले उतने ही साँचों में ढ़लते रहे बड़ी नादान सी फितरत रही है हमारी भी 'नादाँ ' सिर्फ ज़ख्म अजीज़ थे हम जख्मों में पलते रहे जयनारायण बस्तरिया 'नादाँ '©

मेरे दर्द की शिद्दत ..

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भुलायें तो भुलायें कैसे ....

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देख इश्क़ तूने

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वो परवाज़ सा आया

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फ़क़त मेरी आवारगी

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अधूरे किस्से

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तेरे मस्अले

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दर्द है बेपनाह

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दिल-ए-खुशफ़हम

फूलों के मौसम में ये क्या गुलशन को आस है दीवारों पर बैठी तितलियों की बेबस उबास है इस दौर चाहा किसे कब  क्या मुकम्मल हुआ उदास खड़े जंगलों को भी आग की तलाश है दिल-ए-खुशफ़हम को इतनी तसल्ली खूब है वो हुस्न ओ जमाल भी मुझसा कहीं उदास है वफ़ा परस्त रहे हम सारी उम्र इस दौर में भी हरीफेजाँ से ये दिल्लगी अकीदत की बात है अबके फ़स्ले बहार  हर गुल कुछ लहू जर्द है उस उफ़्क से हर गुल को मेरे खूँ की प्यास है ना रतजगे ना बेकरारी ना कोई तलब 'नादाँ' इस गाम में क्या ये तर्के मरासिम की रात है #नादाँ_बस्तरिया #JNB

मस्ते अलमस्त

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