गज़ल - वक्त-ए-गर्दिश में हूँ ये मेरा नसीब है
दूर रह कर भी, जो दिल के करीब है
पर उनकी शिकायते भी
जहे-नसीब है
दर्द-ओ-जख्म देकर हिसाब मांगे जो
मेरा गम़गुस्सार
भी, बड़ा अजीब है
रोटी और अश्क की इबादत है गुनाह
यह उनका इल्म है, वो भी अदीब
है
कहते है, इस दुनिया के सब पैरोकार
वक्त-ए-गर्दिश में हूँ ये मेरा नसीब है
ये इश्क शौके-ए-अमीर है, सुनो ‘नादां’
तुझे क़द्र कहाँ दिल की, तू तो गरीब है
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