कविता - दिल्ली अनन्त तिमिर है

दिल्ली अनन्त तिमिर है 

बार बार लगातार
यह भुमि उंगली उठाकर कहती है
हत्यारा उस ओर गया है
उसकी उंगली
दिल्ली के तरफ 
उठी हुई है सदियों से
सदियों के पुर्व से, सदियों तक
इस दुनिया मे
पश्चिम, उत्तर पश्चिम से हत्यारे आते रहे है।
बर्बर हत्या लुट साम्राज्य
धर्मो का रौदं, संस्कृतियो को रौद
धर्म ध्वजा फहराते हुये
व्यापार के पार 
तलवारों के नोक पर सत्ता सजाते रहे
दिल्ली हर बार असफल हुई
रोकने में, प्रतिकार करनें में
कराह, चीख, विलाप,
संताप, मौन, रुदन
दिल्ली को सुनाई नही देते 
क्रोध, घृणा, क्षोभ, छटपटाहट
निर्मम ढगं से नकारती है, यह दिल्ली
यह दिल्ली आमंत्रित करती है
बर्बर हत्या लुट के साम्राज्य को 
व्यापक क्रुरता को
इतिहास से अब तक
व्यापक त्रासदियों को
युद्ध दिल्ली के लिए एक प्रणय है
हार अर्पित करने वाला प्रणय
हार अर्पित करने वाला प्रणय
लाल पत्थरों का किला
इतना लाल क्युं है ?
सदियों से सदियों तक
नैतिकता की हत्या और
राष्ट्रधर्म के खुन का रंग
संग को सुर्ख करता रहा
इन पत्थरों को
वहीं पर
सत्ता, संसद और सडान्ध प्रिय दिल्ली
संगीतए संयम, शास्त्र और शान्ति
से घृणा करती
ध्वजा और देश के सपनों में
खोइ भीड की हत्या बार-बार लगातार
स्विस बैकों से मोहब्बत का व्यापार
हमें तिरस्कार
बहस बेकार
क्रिकेट,फिल्म और पेज थ्री
के सपनो से थककर डुबी जनता
तथा खादी वालों की पीठ सहलाती
आत्म स्खलन के आनन्द में भरपूर 
दिल्ली मग्न है
हमारी अस्मिता का शीलभग्न है।
अपने अत्याचार करने वालों को
पॉच वर्ष के लिये चुन
दिल्ली में बैठाकर
आप चुप रहे
हर दर्द, सांस थाम कर सहें
आप कुछ ना कहें
कविता के भावनाओं में ना बहें
जो पुर्व नियत है ; वही कहें
माहिर है दिल्ली
दिल्ली अनन्त तिमिर है
पुरा देश् यातना शिविर है 

टिप्पणियाँ

  1. आत्म स्खलन के आनन्द में भरपूर
    दिल्ली मग्न है
    हमारी अस्मिता का शीलभग्न है।
    ................
    बहुत खूब दिल्ली के यथार्त को खूबसूरती से पंक्तिबद्ध किया गया है |

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