ग़ज़ल - हम भी नजर मुक़ाबिल-ए-महबूब रखते है

jay bastriya

वो कातिल-ए-हुश्न भी, क्या खूब रखते है
हम भी नजर मुक़ाबिल-ए-महबूब रखते है

कौम जलाने की जिद लिए भटकती भीड़ में 
घर की दरार में उगा, हम इक दूब रखते है

दुनिया के मौको ने खूब कसा हमारी रूह को
हम है कि फिरकापरस्ती से बस उब रखते है

दुनिया-ए-फानी की तर्जुमानी, अंदाज आपके
हक़परस्ती ही, हम मंजिले मक़सूद रखते है

दुश्मनी किया हमने, खुल कर उनसे ‘नादाँ’
अपनी अदा है, तंज भी हम यूँ बे-सूद रखते है 

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