कविता - लोकतंत्र के नाम की एक सुबह होगी ?
चुप्पी वह खिडकी
जिसके पल्ले अन्दर के ओर खुलते है।
खुली हवा, प्रश्न, अधिकार,
विचार से परे
विचार से परे
तुम्हे गंवारा नही
फिर ना कहना जिन्दगी ने
गली के छोर से तुम्हे पुकारा नही
मुझे मानने में बहुत तकलीफ हो रही है
मुझे मानने में बहुत तकलीफ हो रही है
पुरे पैसठ साल,
कुर्सियों के बोझ से दबकर कुचलकर
कुर्सियों के बोझ से दबकर कुचलकर
अपने वजुद से प्यार करोगे ?
एक उबलता हुआ चेहरा अख्तियार करोगे
मुझे उम्मीद थी
करोडो सुरज निकलेंगे
गुलामी के लम्बे तिमिर के बाद
गुलामी के लम्बे तिमिर के बाद
लोकतंत्र के नाम की एक सुबह होगी
लम्बे तिमिर के बाद सपने,
आंगन के फुल बनेगे
पुरे पैसठ साल से वे कह रहे है ,
उन्होने कहा
उन्होने कहा
हमने एक-एक बात मान ली
बहुत आसानी से
उन्होने कहा
बहुत आसानी से
उन्होने कहा
चलो तुम्हे घोसले से बडा पिंजरा देंगे।
पंखो की बोझ तुम उठा नही सकते
इन्हे कतर कर दिवारों पर सजा देंगे।
उन्होने कहा
उन्होने कहा
उडान तुम्हारी आंखो से
उडान तुम्हारी सांसो से
खुन तुम्हारी रगो से मर चुका है।
अब तुम्हे इनकी क्या जरुरत है ?
बांझ कोशिशें भी तुमने नही की
पंख फैलाने की ?
अपने हिस्से का आकाश पाने की
जरुरत क्या है ? पंखों के बोझ उठाने की।
वो कहते रहेंगे पर.......
सुनो
सुनो
पुरे पैसठ साल, बहुत होते है
अब तो
खुली हवा में अधिकार के प्रश्नो पर
विचार करो
लोकतंत्र चुप्पी की वह खिडकी नही है;
जिसके पल्ले अन्दर के ओर खुलते है।
" बांझ कोशिशें भी तुमने नही की "
जवाब देंहटाएंकविता अपने मुद्दे के प्रति गंभीर और सवेदनशील है; आम आदमी के दर्द को प्रभाव शाली ढंग से उभारती है |