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विचार - शिक्षा , केन्‍द्र एवं राज्‍य सरकार की योजनाओं में अन्‍तर : संसाधन एवं पहुंच

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शिक्षा , केन्‍द्र एवं राज्‍य सरकार की योजनाओं में अन्‍तर : संसाधन एवं पहुंच    केन्‍द्र सरकार द्वारा राज्‍य स्‍तर पर संचालित एक विदयालय तथा राज्‍य सरकार द्वारा संचालित एक विदयालय के में उपलब्‍ध संसाधन एवं कार्ययोजना के अन्‍तर एवं परिणाम स्‍वरूप मुणवत्‍ता का अन्‍तर को स्‍पष्‍ट रूप से देखा जा सकता है । शिक्षा के क्ष्‍ेात्र में राज्‍य सरकार एवं केन्‍द्र सरकार का 6 प्रतिशत से अधिक व्‍यय की सीमा तक कौन पंहुच रहा है यह विचारणीय है। बहरहाल राज्‍य सरकार द्वारा कमजोर वर्गो के लिये छात्रव्रत्त्‍िा, हर जगह उपलब्‍ध छात्रावास आश्रम, सायकल वितरण योजना, शिक्षको की नियुक्ति का प्रया,शिक्षण तथा प्रशिक्षण की सुविधा मे उल्‍लेखनीय विस्‍तार हुआ है सरकार की योजना बहुत अच्‍छी है। वही शिक्षा मिशन के अन्‍तर्गत शैक्षणिक संस्‍थाओं की स्‍थापना, शाला भवनों का निर्माण, शैक्षणिक संसाधनो का विस्‍तार अल्‍लेखनीय है । समस्‍या तो है जमीनी स्‍तर तक संसाधन एवं शिक्षा का मुणवत्‍ता सहित ? पंहुच का है। राज्‍य एवं केन्‍द्र सरकार शिक्षको के क्षमता विकास के लिये आयोजित किए जाने वाले प्रशिक्षणों की संख्‍या पर्याप्‍त है स

विचार - अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता, एक जरूरत

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अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता, एक जरूरत ?  माध्यमिक शिक्षा आयोग या मुदालिय शिक्षा आयोग (1952’ 53) ने माध्यमिक शिक्षा के स्तर पर हिन्दी के प्रचार-प्रसार को महत्त्व देते हुए त्रिभाषा सूत्र के प्रारम्भिक रूप को प्रस्तुत किया। इसके अनुसार माध्यमिक स्कूल के सभी स्तरों पर मातृभाषा या क्षेत्रीय भाषा शिक्षा का माध्यम हो । मिडिल स्कूल स्तर पर हिन्दी और अंग्रेजी इस प्रकार लागू की जावे कि दोनों भाषाएँ एक ही साथ न शुरू कर उनके बीच एक वर्ष का अंतर रखा जावे। माध्यमिक शिक्षा आयोग के बाद केन्द्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड ने स्पष्ट रूप से माध्यमिक स्तर के लिए त्रिभाषा सूत्र अपनाने की सलाह दी। इस त्रिभाषा सूत्र, भाषा समस्या का सर्वोत्तम समाधान है। चुंकि भारत एक विशाल बहुभाषी देश है हिन्‍दी भारत को एक राष्‍ट्र के रूप में जोडे रखने के लिए समर्थ है साथ साथ गैर हिन्‍दी भाषी प्रदेशों के साथ संवाद, आवागमन एवं प्रवाह के लिए तथा हिन्‍दी को स्‍वीकारीय स्‍थिति  तक जाने के लिए त्रिभाषा का होना आवश्‍यक है । वैश्वीकरण के इस दौर में हमें अंग्रेजी के समक्ष दंडवत होने , उसे ही अपनी जीवनशैली और बोलचाल में ढालने क

विचार - वर्तमान शिक्षा नीति – इस नीति का नियत देश की नियति के लिए ठीक नही

वर्तमान शिक्षा नीति – इस नीति का नियत देश की नियति के लिए ठीक नही सन 1976 के संशोधन द्वारा शिक्षा को समवर्ती सूची में डाला गया तब से लेकर 1986 में बनी राष्‍ट्रीय शिक्षा नीति 1992 का संशोधन 2004 में केन्दिय शिक्षा परामर्शदाता समिति, दसवी पंचवर्षीय योजना में गुणवत्‍ता वत्‍तामिल किये गये श्क्षिा  को लेकर कर जनसंख्‍या शिक्षा, पर्यावरणउन्‍मुखी शिक्षा, विज्ञान शिक्षा में सुधार, योग शिक्षा जैसे विषय सामिल किये गये यह शिक्षा के क्षेत्र के जरुरी सुधार थे लेकिन इन अपेक्षित सुधारों की गति काफी धीमी थी। 1992  संशोधित नीति में एक ऐसी राष्‍ट्रीय शिक्षा प्रणाली तैयार करने का प्रावधान है जिसके अंतर्गत शिक्षा में एकरूपता लाने , प्रौढ़शिक्षा कार्यक्रम को जनांदोलन बनाने , सभी को शिक्षा सुलभ कराने , बुनियादी (प्राथमिक) शिक्षा की गुणवत्ता बनाए रखने , बालिका शिक्षा पर विशेष जोर देने , माध्‍यमिक शिक्षा को व्‍यवसायपरक बनाने , शिक्षा परिषदको सुदृढ़ करने तथा खेलकूद , शारीरिक शिक्षा , योग को बढ़ावा देने एवं एक सक्षम मूल्‍यांकन प्रक्रिया अपनाने के प्रयास शामिल हैं। कुल राष्‍ट्रीय आय का कम से कम 6 प्रतिशत ध

ग़ज़ल - अकेले जीना, तेरी आखें से सिखाया ना गया

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हमसे हो ना सका  तुमसे निभाया ना गया दौर-ए-इश्क को अंजाम पर लाया ना गया फलक और जर्रे का ताल्लुक   ये दौरे-ए-जहॉ तुम हुस्न हो हम इश्क ये भुलाया ना गया ताल्लुक रस्म के मानिन्द, चलते कब तक हमसे हो ना सका   तुमसे निभाया ना गया इस बात की तकलीम अब मुमकिन कैसे आग तुमसे लगाया ना हमसे बुझाया गया तेरी जुल्फों से दुर मेरी ये दुनिया कैसी   यूँ जीना तेरी आखें से सिखाया ना गया   तर्के-ताल्लुक इंतजार   बेकरारी अब के 'नादां'   हमसे आया ना गया उनसे बुलाया ना गया  

कुछ रुबायत - कुछ रुबाइयां

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तुम भी होगे ये हंसी रात भी होगी तुम्हें मन्जुर हर बात भी होगी अभी तेरी मासूम चुप ही सही हैं उम्र आयेगा तो वो बात भी होगी  --- मैं हवा हू मुझे बिखरने से ना रोको कोई पहली बरसात हू बरसने से ना रोको कोई बुन्द -बुन्द हर  रग रग में समा जाउगां अपनी हद से मुझे निकाल फेको तो सही  ---- सारा उसुल जब तबाह हो जाता है कोरे मन का कागज स्याह हो जाता है इश्क होता है हर तहजीब से परे उम्र आती है ये गुनाह हो जाता है  -------

कविता - राजनीति प्रयोग के दौर का नाम है

नकाब  ये क्या कर रहे हो यार ? नकाबो के पिछे चेहरे मत ढुंढो  चेहरों के पीछे छिपे नकाबों को देखो  जरुरी नही आदमी का चेहरे के पीछे  आदमी हो  हो सकता है  सरकार हो ! राजनीति हो  कोई वादा भी हो सकता है  नकाब मत खोलना  सबकुछ इस तरह  से व्यवस्थित है  तुम्हे किसने कहा ?  तुम पुर्व अवगत हो ...  यह तथ्य मायने नही रखता सच लोकतंत्र जनपदो के इतिहास से  से पुर्व से चल रही प्रक्रिया है  जो जारी है ।  तुम सिर्फ पांच वर्षो में  सबकुछ पाना चाहते हो  पांच वर्ष मे ही संसद को  आज़माना चाहते हो  राजनीति प्रयोग के दौर का नाम है  कुछ सौ वर्षो मे हम  अपने सुखों के सैलाब के बाद  भारत से गरीबी ना सही  गरीब को दुर कर् देंगे ।

गजल - सिलसिला जख्म दर जख्म जारी है

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साभार  सिलसिला जख्म दर जख्म जारी है दामन भी मेरा  खुन-खुन  तारी  है कत्ल किया उसने इक मिरा ही नही उसका ये कारंमा शहर-शहर जारी है हमने मजबुरी से बेचे थे ईमान अपने उनकी तो यहॉ बाजार-बाजार यारी है खरीद लो ऑसमा अपना-अपना तुम  हमारे भी दामन का जर्रा-जर्रा भारी है नाहक हमने सुनाये तुजर्बे ऐहत राम से सुना लो तुम भी  अपनी-अपनी बारी है उलझेंगे कितने ओैर इस पेचों खम में उसने ये जुल्फें  रफ़्ता-रफ़्ता  संवारी है

कविता - रायपुर शहर में खिड़कियां नही है

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मेरे आँखों ने मुझसे पूछा ज ब देख कर भी तुम्हारे विचार  नही बदलते ; तब खिड़कियां बनाने और बाहर देखने का अर्थ क्या है ? तुम्हारे विचार तुम्हारी जरूरतों से जब जुड़े हो तब बकवास की कुदाली चलाने की जरुरत क्या है ? देखो बाहर  देखो खिडकी से बाहर रायपुर ! नही; राजधानी बढ रही है कागजो में, स्टीमेट में जो लिखा है उस से कुछ कम, पर सड़कें जगमगा रही हैं, पाश कालोनियाँ बढ़ रही है बढ़ रहे है क्रेडिट कार्ड , चमकते मॉल मॉल में बढ रही है रौशनीयां बढ रही एस यु वी की संख्या मॉलों के सामने  वैसे-वैसे बढ़ रही है बड़े-बड़े बंगलो के किस्तें चुकाने के लिए स्मार्ट कार्ड के खर्चे में गर्भाशय निकालने का व्यवसाय वैसे-वैसे बढ़ रही है राजधानी से थोड़ी दूर से दंतेवाडा के कोंटा तक हसियाँ लिए घुटने भर पानी में खडे लोगो के घुटने का दर्द महुए बिनती चार घंटे से झुकी कमर अब कमान हो रही है बढ रहे है बाएं हांथो की अंगुठों में नीले स्याही के दाग बढ रहा है, कम होते जंगलो में शनै: -  शनै: अंधकार  इधर शहर में बढ रहे है बैंक, हुक्का पार्लर , गार्डन उधर मेरे गाँव में बढ रही है क्रिकेट, मो

कुछ रुबायत

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रुबायत ...... दर्द  हम अपना, कुछ इस कदर  बांटते है सपने आँखों में लिए यु सारी रात काटते है सदाये लौट आती है, मेरी वहाँ उस मोड से जहां  तेरी  आँखे, मेरी आवारगी ताकते है              ..... * .... ना आँखों में दर्द है, ना होंठो में दुआए है हमने अपनी हंथेली पर कांटे जब उगाए है बंद  गलियों से टकरा कर लौट आती  है मुझसे कही  मजबूर तो ये मेरी सदायें है                       .... * ......

नज्म - वो बे-खबर

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सा -गूगल  आरजूएं   हजार रखते है   पर हम, दिल को मार रखते है   वो आँखे, कलेजे पै वार रखते है   पर हम से दिल बेजार रखते है   वो आँखे है नश्तर जैसे ,  वार-ब-वार रखते है   हम में भी खुलुश कुछ कम नहीं इन नजर -ए -बेरुखी पर प्यार रखते है बेकदर वो हमसे बेखबर वो हमसे बेरुखी उनकी रोज-नामचा है हमारी क्या खता है यहाँ हर वजह बेवजह है   उन्हें आता क्या मजा है   कैसे कहे ? किससे कहे ?   अजब-अजब शुमार रखते है कैसे कहे वो हमपे प्यार रखते है हम है की आरजूएं   हजार रखते है पर हम दिल को मार रखते है  

कविता - आखिर कब तक ?

आखिर कब तक ? ------------------------ अनियंत्रित भावनाओं का उताप ओर कितनी बार पुनरावृतियां अप्रतिहत स्वरों की टंकार से अप्रतिहत स्वरों की गुजानों से झरते स्मृतियों के सुखे पत्ते की गुजरे असंख्य बसन्त के पग-पग , पल-पल प्रतिध्वनियां और कितनी बार बन पखेरूओं के परों की सरसराहट, हल-चल स्व-स्खलित होती भावनाओं का उताप बह रहा है या तेरे स्वर नाद का अक्षय कोष विदोलित हुं और कितनी बार मेरे चारों दिशाओं को भेदने यह यायावरी - यायाति निनाद कुछ-कुछ बैलाडिला श्रंखला की ढलानों पर उतरते कोहरे पर या तेरे धाविल दहकते दाडिम से कपोल पर ठहरी अजानी ओस की बुन्दे अंगार और ओस सब कुछ तो है मेरे चारो ओर यथावत यत्र-तत्र, सर्वत्र बस तु नही आखिर कब तक ? आखिर कब तक ?

कविता - एक भीड की प्यास

सुनो बाबुजी, सुनो बाबुजी हम देश नही है हम देशवासी नही है हम एक बडे जमीन के टुकडे में सदियों से चल रही शोक सभा में बैठी भीड है ह्मारे जांघों के उपर तक चढी सीड है जो हमारे अन्दर आग पैदा होने नही देती तुम दावे बडी-बडी करते हो हम पर ... जबकि असलियत यह है की हमारे अन्दर की पौरुषता दिवार पर टंगी वयस्क फिल्म की पोस्टर हो गई है जिसके निचले हिस्से पर एक हिजडे ने एक मुस्कुराया पान खाकर थुक दिया है थोडी दुर पर वह गान्धार की तरफ मुँह कर संसद के सामने ब्रिटिश कालीन लैम्प पोस्ट के उजाले पर कोक शास्त्र पर चर्चा करने में व्यस्त है ना सोचे कविता मे अजीब विन्यास है मेरी जुबान पर दुनियावी व्याकरण की खराश है तुम कह सकते हो यह बकवास है ; यह एक कुंठित का एकालाप है नही , यह नई धुन का कोरस है यह कोइ नई नैतिकता जगाने वाला   इश्तहार नही फर्जी आज़ादी रेडीमेड स्वत्ंत्रता सेनानी और रेडीमेड राष्ट्र पुरुषों के (सच्चों पर इतिहास नही लिखा गया) कहानियों के बाद की लम्बी नींद और     सुख के सपने कान्धो में लाद कैक्ट