गज़ल - ऐश-ओ-इशरत के मारे, तेरे दोस्तों की फितरत ‘नादाँ’
दर्द को बाँध गठ्ठर में, हम जिन्दगी का सफ़र करते है
दर्द ओढ़ते, दर्द बिछाते यूँ हम जिंदगी बसर करते है
कभी तो इक पुरी रोटी होगी, मेरे भी बच्चो की थाली
सपोलों की अय्याशी मुकम्मल रहती हमारे हर दम पर
खेत, कारखाने, दिवारे पसीने सब उनकी नजर करते है
भूख को किस्तों में बाँट कर, सूखे पानी के निवालों से
शाह-ए-अंदाज से हम इस फाकामस्ती में गुजर करते है
हमारी मुफलिसी और ये दौर-ए-माशराई कैसे मुक़ाबिल
किसने कहा हुजुर, कब हम जैसे, अगर-मगर करते है
ऐश-ओ-इशरत के मारे, तेरे दोस्तों की फितरत ‘नादाँ’
देखें तेरे घर की लगी आग की कब वो खबर करते है
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