कविता - मेरी अधुरी इच्छाओं का रोज बदलता चेहरा

मेरी अधुरी इच्छाओं का
रोज बदलता चेहरा
एक आदमी का नही है
जो यातनाओं के खिलाफ
मुहं खोल सके
लहलहाती हुई नग्न व्यवस्था
को तौल सके
ना इसमें समाधान की कला है
ना यह संघर्ष पर पला है
माथे पर पसीना इसके लिए बला है
यह तो असंगठित क्षेत्र के
मजदुर का वेतन है
जो परिवर्तनधर्मी की भुमिका
खुल के नही निभा सकता
अपनी जात पर कभी आ नही सकता
आने वाले खतरों की गन्ध
इसे चैन से जीने नही देती
लेकिन बहुत तसल्ली के साथ
फुटपाथ पर बिछा
भिखारी सा कपड़े पर
अपना सम्मान सजा
बेच-बाच
शिनाख्ती के अभाव में
जी-खा लेगा
आज तक संघर्ष के नाम पर
सिर्फ अपने गले का फंसा
बलगम साफ किया हो
वही मेरी अधुरी इच्छाओं का
बदलता झुलसता चेहरा
शहीदो की सूची में
पहले ....
नाम लिखाने
अब .....
वरिष्ठता के लिए आन्दोलन रत है
जब भी मौका मिले
असली ताकत की
असली दवा जेब में रखकर
सत्ता नशीनों के साथ मंच पर चढ़कर
मुठठ्ठियां हवा में लहरायेगा
मंच के नीचे
दिहाड़ी पर बुलाये
सपाट, मुर्दा चेहरो को
तमाम वादों की पाठ पढ़ायेगा
साथ-साथ मंच पर बैठे लोगों
के भडूअेपन पर
प्रसंशा गीत
गाने से नही हिचकिचायेगा
वही मेरी अधुरी इच्छाओं का
रोज बदलता चेहरा
पजामें के नाड़े की तरह यह
सत्तामद लोगों के चरित्र को
नग्न होने से रोके रखता है
मेरी अधुरी इच्छाओं का झुलसता चेहरा
रेल के तीसरे दर्जे का भाडे की तरह
कब की बजट में बदल जायें
विश्वास नही करना
मेरी अधुरी  इच्छाओं  का
रोज बदलता चेहरा
एक आदमी का नही है
जो परिवर्तनधर्मी की भुमिका
खुल के नही निभा सकता
अपनी जात पर कभी
आ नही सकता


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