कविता - बाओबाब का पेड़ हूँ मै

जंगल चीख नही सकते
जंगल चीख रहे हैं सदियों से 

हाँ तूम सुन नही सकते
तुम्हारी ज़रुरत से ज्यादा उंची
तुम्हारी लालच की दिवार फान्द कर
आवाज़ तुझ तक नही पहुंची
तुम्हारी लालच का दावानल की तपिश
जंगल के बुटे-बुटे तक फैला है

जंगल को बुटे-बुटे को मालुम है 
तेरे नाखुन जंगल जडों के नीचे तक धसें है
तुम्हारे दांत हर तने मे घुसे हैं
चुसतें है पुरी तल्लीनता
तना-तना ,पत्ता-पत्ता ,बुटा-बुटा
तुम्हारा यह आनन्द तिरेक
तुम्हारे ह्र्द्य घात का कारण बनेगा
तुझे ओसद देकर
गरल पान करते हम जंगल
तु लीलना चाह्ता है अपने ही फेफडे को
अपने इक-एक सांस को 
जंगल के पास एक दर्पण नही है
दिखा सके तुझे
तेरे व्यापार के शब्दों के चेहरे को
जंगल रोना चाहते हैं
अच्छा हुआ तुमने जंगल को कान्धा नही दिया
रोने के लिये
तुम्हारे कान्धे पर फफोले पड जाते
पर देखना एक दिन
हम जंगल एक दिन तुझे कान्धा देंगे
समझ ले हम जंगल
तुझ से पहले से हैं
तेरे बहुत दिनो बाद भी रहेंगे
इस धरती पर
बाओबाब का पेड़ हूँ मै 

सुन कुल हन्ता 
मै ही तेरा पूर्वज हूँ तेरा पुरखा हूँ 

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