ग़ज़ल - कुछ मासूमियत कुछ ख़ुराफ़ात


ये आवाम यूँ ही फिजूल, भूख को बदनाम करती है
वज़ीरां--वतन  सियासत में सुबह-ओ-शाम करती है

हमारे जख्मी यकीं पे, गौर ना करो तुम सियासतदां
हमारी बेबसी, लाचारी तुम्हे, झुक एहतराम करती है

अब्र--दहशत आ तुझसे दावत है, मेरे आसमान की
फिर ना कहना मेरी बुजदिली मुझे बदनाम करती है

जुनूं--मोहब्बत है मुझे, जुनूं-ए-वतन भी मेरे नशों में  
ये अखबार ये दुनिया फिर भी मुझे गुमनाम करती है

अजब सी  कारसाज़ी उनकी, उस पर मेरा मुद्दा-ए इश्क
कभी मुहब्बत कभी अदावत, तजुर्बे  नाकाम करती है

लाख सम्हाले ना सम्हले ये दिल उनसे, उनका ‘नादाँ’
उसकी मासूमियत कुछ ख़ुराफ़ात मुझे सरेआम करती है

जयनारायण बस्तरिया ' नादाँ '



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