गज़ल - वो जो कातिब है तेरी किताब-ए-जिन्दगी का ‘नादां’




जुगनुओ की साजिश का शिकार, इक मै ही नही 
रात का पता लिए सूरज भी, सारा दिन चलता रहा

मै सिलता रहा भूखी अंतडियों पर सुखी रोटियाँ 
फितरत-ए-रोजगार चेहरे पर चेहरा बदलता रहा 

ज़ाहिर है वो ज़हीर नही, फिर ये तकल्लुफ़ कैसा 
किस्सा ए वफ़ा सुन, रफ़्ता-रफ़्ता पिघलता रहा 

मुफलिसी, जरूरते, मजबुरियाँ, बस सकून नही
ठोकरें मिलती रही, मै गिरता रहा संभलता रहा 


सियासतों का शहर ये, ये साजिशो की गलियाँ
रोटी पर तर्जुमा होते रहे, मै बेबस उबलता रहा 


वो जो कातिब है तेरी किताब-ए-जिन्दगी का ‘नादां’
अबस अब्तर कभी जिल्द कभी पन्ने बदलता रहा 


जयनारायण बस्तरिया 'नादाँ '

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