गजल - सिलसिला जख्म दर जख्म जारी है


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सिलसिला जख्म दर जख्म जारी है
दामन भी मेरा  खुन-खुन  तारी  है

कत्ल किया उसने इक मिरा ही नही
उसका ये कारंमा शहर-शहर जारी है

हमने मजबुरी से बेचे थे ईमान अपने
उनकी तो यहॉ बाजार-बाजार यारी है

खरीद लो ऑसमा अपना-अपना तुम 
हमारे भी दामन का जर्रा-जर्रा भारी है

नाहक हमने सुनाये तुजर्बे ऐहत राम से
सुना लो तुम भी  अपनी-अपनी बारी है

उलझेंगे कितने ओैर इस पेचों खम में
उसने ये जुल्फें  रफ़्ता-रफ़्ता  संवारी है

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