कविता - एक भीड की प्यास

सुनो बाबुजी,

सुनो बाबुजी
हम देश नही है
हम देशवासी नही है
हम एक बडे जमीन के टुकडे में
सदियों से चल रही
शोक सभा में बैठी भीड है
ह्मारे जांघों के उपर तक चढी सीड है
जो हमारे अन्दर आग पैदा होने नही देती
तुम दावे बडी-बडी करते हो
हम पर ... जबकि
असलियत यह है की
हमारे अन्दर की पौरुषता
दिवार पर टंगी वयस्क फिल्म की
पोस्टर हो गई है
जिसके निचले हिस्से पर
एक हिजडे ने एक मुस्कुराया
पान खाकर थुक दिया है
थोडी दुर पर वह
गान्धार की तरफ मुँह कर
संसद के सामने
ब्रिटिश कालीन लैम्प पोस्ट के उजाले पर
कोक शास्त्र पर चर्चा करने में व्यस्त है
ना सोचे कविता मे अजीब विन्यास है
मेरी जुबान पर दुनियावी
व्याकरण की खराश है
तुम कह सकते हो
यह बकवास है;
यह एक कुंठित का एकालाप है
नही, यह नई धुन का कोरस है
यह कोइ नई नैतिकता जगाने वाला 
इश्तहार नही
फर्जी आज़ादी
रेडीमेड स्वत्ंत्रता सेनानी और
रेडीमेड राष्ट्र पुरुषों के
(सच्चों पर इतिहास नही लिखा गया)
कहानियों के बाद की लम्बी नींद और  
सुख के सपने कान्धो में लाद
कैक्टस के जंगल में सदियों से भटकती
एक भीड की प्यास है
लेकिन बाकी आस है
जब तक सांस है
सुनो बाबुजी
     

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