कविता - आखिर कब तक ?

आखिर कब तक ?
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अनियंत्रित
भावनाओं का उताप
ओर कितनी बार
पुनरावृतियां
अप्रतिहत स्वरों की टंकार से
अप्रतिहत स्वरों की
गुजानों से
झरते स्मृतियों के सुखे पत्ते की
गुजरे असंख्य बसन्त
के पग-पग , पल-पल
प्रतिध्वनियां
और कितनी बार
बन पखेरूओं के परों की
सरसराहट, हल-चल
स्व-स्खलित होती
भावनाओं का उताप
बह रहा है
या तेरे स्वर नाद का
अक्षय कोष
विदोलित हुं
और कितनी बार
मेरे चारों दिशाओं को भेदने
यह यायावरी - यायाति निनाद
कुछ-कुछ
बैलाडिला श्रंखला की ढलानों पर
उतरते कोहरे पर
या
तेरे धाविल दहकते
दाडिम से
कपोल पर
ठहरी अजानी ओस की बुन्दे
अंगार और ओस
सब कुछ तो है
मेरे चारो ओर यथावत
यत्र-तत्र, सर्वत्र
बस तु नही
आखिर कब तक ?
आखिर कब तक ?

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