ग़ज़ल - मुझे भी संकुं रहे मै तंगदिल ना हुआ
जिसे वक्त पे खंजर
हांसिल ना हुआ
जिस काँधे का बहुत
भरोसा था मुझे
वही मेरे जनाजे पे
सामिल ना हुआ
चलो कुछ इल्जाम मै भी मान लेता हूँ
मुझे भी संकुं रहे मै
तंगदिल ना हुआ
मेरे रहन में जमा
तमाशाबीन भीड़ थी
वही कहते है यार ये
महफ़िल ना हुआ
अदावत करता रहा पूरी
जिंदादिली से
दोस्तों की दोस्ती
में गाफ़िल ना हुआ
पंख फैलाये जो आसमां
से उफ़क तक
मेरा वजूद वो इक अबाबील
ना हुआ
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