कविता - भुख एक कविता
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Bastar Jaynarayan Bastriya |
जब-जब भूख गलती है
तब
जिंदगी सांचे में ढलती है
ओ
सुविधा के जारज ओलादों
तुम
मोम से,
तुम
क्या जानो
मीठी-मीठी
थकान और धुप, पसीना
जब
कल के उम्मीदों के गोद में तिरती है
ठंड
और धुंध में जलते अलाव सी
धुंए
में घुमकती बिखरती है
तब-तब भूख मचलती है
तुम मोम से
तुम क्या जानो
पिंडलियों और कांधे की तडकन से थककर
खुद के पसीने के गंध से मचल कर
जब-जब भूख मचलती है
तब-तब यह भूख गलती है
तब-तब
जिंदगी सांचे में ढलती है
तब जिंदगी सांचे में ढलती है
ओ सुविधा के जारज ओलादों
तुम मोम से,
तुम क्या जानो
मीठी-मीठी थकान और धुप, पसीना
जब कल के उम्मीदों के गोद में तिरती है
ठंड और धुंध में जलते अलाव सी
धुंए में घुमकती बिखरती है
तब-तब जिंदगी सांचे में ढलती है
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