कविता - भुख एक कविता

 
भुख एक कविता  ..............
Bastar Jaynarayan Bastriya 
जब-जब भूख गलती है
तब जिंदगी सांचे में ढलती है 
ओ सुविधा के जारज ओलादों 
तुम मोम से
तुम क्या जानो 
मीठी-मीठी थकान और धुप, पसीना 
जब कल के उम्मीदों के गोद में तिरती है
ठंड और धुंध में जलते अलाव सी
धुंए में घुमकती बिखरती है
तब-तब भूख मचलती है  
तुम मोम से 
तुम क्या जानो 
पिंडलियों और कांधे की तडकन से थककर       
खुद के पसीने के गंध से मचल कर     
जब-जब भूख मचलती है
तब-तब यह भूख गलती है 
तब-तब जिंदगी सांचे में ढलती है

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