ग़ज़ल - मुकद्दर मेरा मुझे यूं ही बदनाम करती है



मेरी आवारगी मेरी आदत नही मेरे दोस्त
मुकद्दर मेरा मुझे यूं ही बदनाम करती है

मेरा इश्क दफ्न है मजबूत सीने में मेरे
उसकी आँखे मुझे बेसबब सरेआम करती

क्या देखती है वो आँखे जागती ख़्वाबों में
सोचती क्या है गालों को ज़ाफ़रान करती है

बड़ी मुहजोर है ये बारिश ये लरजती हवाए
बेसाख्ता उन जुल्फों को गुलफाम करती है

हम कलंदर है हमें फ़कीरी मुबारक ‘नादां’
रहती दुनिया को ये दूर से सलाम करती है 

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