गज़ल - पर भुख की जुबान पर ताले है
साजिश सबके सब देखे भाले है
मेरे ही पाँव सिर्फ मत देखो
पगडंडी के चेहरे पे भी छाले है
रात जिसने रौशनी बेच खाई
सुबहा वही ढूंढे नए उजाले है
वफ़ादारी पर बहस करने वालो
तुमने आस्तीनों में सांप पाले है
हमारी मजबूरियां कायर नही है
पर भुख की जुबान पर ताले है
वक्त की साजिश ने रोक रक्खा
वरना इस खून ने लावा उबाले है
उसके हुनर पर सवाल बेमानी है
‘नादां’ कांटे से चुभे तीर निकाले है
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