ग़ज़ल - बहर छोटी हो या बड़ी शेर में तासीर हो
इश्क में
हुश्न का रूठना-मानना रह गए
रोजी-रोटी रह
गई रोना-रुलाना रह गया
दिल बहल जाता
तेरे महफ़िल में मगर
हम उठ गए बस दौरे-ज़माना
रह गया
इश्क और हुश्न
के दरम्यां अब क्या रहा
रिश्ते तमाम हो
गए आना-जाना रह गया
उड़ना चाहा जो उस
उफ़क से आसमां तक
जहाज उस पंछी
का ठौरो-ठिकाना रह गया
कब्र पे मेरी
वो जो डाल आये थे कभी
वो चादर झीनी
हो गई ताना-बाना रह गया
बहर छोटी हो
या बड़ी शेर में तासीर हो
अब के फ़कत
लिखना-लिखाना रह गया
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