गज़ल - लज्ज़त-ए-दर्दे निहां भी पूछो हमसे
वो मुस्कुरातें है हर गुनाह करके
लुत्फ़ जो लेते है मुझे तबाह करके
हम बिस्मिल है दर पर उनके ही
वो कातिल हैं हम कुछ गाफ़िल है
हमें तसल्ली है यूँ भी निबाह करके
बेपर्दा होंगे वो गैर की महफ़िल में
इस अंजुमन से गए यूँ आगाह करके
लज्ज़त-ए-दर्दे निहां भी पूछो हमसे
जख्म वो कुरेदे है आह-आह करके
तसल्ली देने को क्या आये वो 'नादां '
मेरा नींद-ओ-चैन ले गए उगाह करके
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