कविता - नियति
नियति
jaybastriya - Bastar |
मै कुम्हार के चलते चाक् से
उसके सधे हाथो से
फिसल कर
गिरी हुई मिट्टी का टुकडा हुँ
खुरचना हुँ
परम्परा के अनुरुप
मेरी कुम्हार
मुझे फेक जो देगा
अब मै कभी आकार नही ले सकुंगा
ऐसा विधान का लेखा जो ठ्ह्रारा
फिर मै कालजयी तो नही
मेरे पिछे तर्क क्यूं होगें ?
माया सभ्यता भी तो गुम हो गयी है
डोडो पछी भी तो गुम हो गया है
प्रक्रति के परिदृश्य से
फिर मै तो काल के दृष्टि मे कुछ भी नही
और ऐसा होना ही था
मै सर्वहारा जो ठहरा
और वह नियती
अभी परिवर्तन की जरुरत है ,
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