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आज ये रंग-ए-अश्क कुछ जाफरानी है

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उसके काँधे सर रख    रोना शादमानी है आज ये रंग-ए-अश्क कुछ जाफरानी है jay bastriya हम तकल्लुफ़ करते रहे वो है की दगा हम पामाल अपने ईमां की निभानी है ये फ़ुरसत का फ़लसफ़ा लिखते लोग है इन्हें कब रोटी रोज की रोज कमानी है बगावतों के अमीनो की नस्ल है  हम हमें पत्थर में फसल-ए-आग लगानी है   वो हक़ और पसीने के खिलाफ ही रहेंगे जिन्हें गुलाम जेहनों की कौम उगानी है मोहब्बत इस दुनिया की देख ली हमने अदावत की शिद्दत भी कुछ आजमानी है मुखालिफ़ हो शहर की रवायत जब ‘नादां’ ईमान की बात करना बड़ी बेईमानी है  

रोटी-ओ-इन्साफ को तरसती कौम हम

हर सांस में जिसके लगे दांव हो जिनके सीने में जंग के घाव हो जिसे ना हो किनारों की हसरत अब के वही सवार मेरी नाव हो इब्तिदा और इन्तिहाँ के फासले है बहुत दो लफ्ज में वो किस्सा तमाम करते है किस जानिब इस कदर मजबूर है जो उस काँधे सफ़र का एहतराम करते है रोटी-ओ-इन्साफ को तरसती कौम हम अर्जी-ओ-सजदे में सुबहो शाम करते है इस दुनिया से अलहदा फितरत हमारी हम इस दौर को दूर से सलाम करते है

चंद शेर .......

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मेरी प्यास इक नदी से बड़ी है तू सावन है किसी ने बताया मुझे पांवों छालों की बरात लिए फिरते है लोगो हम आसमान के तारो का हिसाब मत पूछो हमसे हमारे दामन पर वक्त की खाराश गिन कर कभी काँटों ने भी हमसे उलझाना मुनासिब नही समझा तेरे इन्कार-ए-वफा की वहशत देख रौशनी से लडती रही है मेरी परछाई मेरे सदाओं में लफ्ज़ की सूरत तुझे पुकारे तो किस सुरत बता खुद को फरेब देने का हुनर हमसे सीखें कोइ गैरों को फरेब देना इस दुनिया का हुनर है नर्म लफ्जों के घावों के कायल हम नही खुल कर जज्बात यूँ दिखाया करो कभी

तेरे गम ने न रख्खा बे-सहारा मुझको

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तेरे गम ने न रख्खा बे-सहारा मुझको  ये बात और है कब मैंने पुकारा तुझको   शबनम की बूंद सा कुछ पल चमकूंगा सूरज ने जब तक ना निहारा मुझको   बग़ावत करेगी अब दरिया किनारों से उस सावन ने किया ये इशारा मुझको दरख्तों के जिस्मों में खुदे नामों सा इस दिल में मैंने यूँ है उतारा तुझको तेरे बज्म में मेरे अशआर थम जाए अता कर कभी तो ये नजारा मुझको   उम्मीद-ओ-वफ़ा में तमाशा बनाकर 'नादाँ’ हर दर्द ने एक दर्द सा उभारा मुझको 

चार पंक्तियाँ

वो आँखों में मुस्कान लिए फिरते है मेरी मौत का सामान लिए फिरते है हंथेलियों में तलाशा करते है वो नादाँ हम पेशानी में ईमान लिए फिरतें है