आज ये रंग-ए-अश्क कुछ जाफरानी है

उसके काँधे सर रख  रोना शादमानी है
आज ये रंग-ए-अश्क कुछ जाफरानी है
jay bastriya

हम तकल्लुफ़ करते रहे वो है की दगा
हम पामाल अपने ईमां की निभानी है

ये फ़ुरसत का फ़लसफ़ा लिखते लोग है
इन्हें कब रोटी रोज की रोज कमानी है

बगावतों के अमीनो की नस्ल है  हम
हमें पत्थर में फसल-ए-आग लगानी है  

वो हक़ और पसीने के खिलाफ ही रहेंगे
जिन्हें गुलाम जेहनों की कौम उगानी है

मोहब्बत इस दुनिया की देख ली हमने
अदावत की शिद्दत भी कुछ आजमानी है

मुखालिफ़ हो शहर की रवायत जब ‘नादां’
ईमान की बात करना बड़ी बेईमानी है 

टिप्पणियाँ

  1. मुखालिफ़ हो शहर की रवायत जब ‘नादां’
    ईमान की बात करना बड़ी बेईमानी है .....बहुत बेहतरीन
    ...शैख़ अख्तर

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