आज ये रंग-ए-अश्क कुछ जाफरानी है
उसके काँधे सर
रख रोना शादमानी है
आज ये रंग-ए-अश्क
कुछ जाफरानी है
हम तकल्लुफ़
करते रहे वो है की दगा
हम पामाल अपने
ईमां की निभानी है
ये फ़ुरसत का
फ़लसफ़ा लिखते लोग है
इन्हें कब रोटी
रोज की रोज कमानी है
बगावतों के
अमीनो की नस्ल है हम
हमें पत्थर में
फसल-ए-आग लगानी है
वो हक़ और पसीने
के खिलाफ ही रहेंगे
जिन्हें गुलाम
जेहनों की कौम उगानी है
मोहब्बत इस दुनिया
की देख ली हमने
अदावत की
शिद्दत भी कुछ आजमानी है
मुखालिफ़ हो शहर
की रवायत जब ‘नादां’
ईमान की बात
करना बड़ी बेईमानी है
मुखालिफ़ हो शहर की रवायत जब ‘नादां’
जवाब देंहटाएंईमान की बात करना बड़ी बेईमानी है .....बहुत बेहतरीन
...शैख़ अख्तर