रोटी-ओ-इन्साफ को तरसती कौम हम

हर सांस में जिसके लगे दांव हो
जिनके सीने में जंग के घाव हो
जिसे ना हो किनारों की हसरत
अब के वही सवार मेरी नाव हो



इब्तिदा और इन्तिहाँ के फासले है बहुत
दो लफ्ज में वो किस्सा तमाम करते है

किस जानिब इस कदर मजबूर है जो
उस काँधे सफ़र का एहतराम करते है

रोटी-ओ-इन्साफ को तरसती कौम हम
अर्जी-ओ-सजदे में सुबहो शाम करते है

इस दुनिया से अलहदा फितरत हमारी
हम इस दौर को दूर से सलाम करते है


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