विचार - सरकारी स्‍कुल बनाम प्राइवेट स्‍कुल

The life in Village of  Baster -near by Dantewada
सरकारी स्‍कुल बनाम प्राइवेट स्‍कुल ; आदमी का अस्‍पताल बनाम ढोर अस्‍पताल
भारत में शिक्षा के मामले में 'स्कूल की उपलब्धता, गुणवत्ता और सभी के लिए सामान अवसरों का होना' हमेशा से चिंता का विषय रहा है| देश की सामाजिक बनावट व आर्थिक विषमता के कारण  'सभी के लिए एक जैसी शिक्षा' के सिद्धांत के सामने हमेशा यक्ष प्रश्न रही है और शिक्षा हमेशा कई स्‍तर में  खण्‍डों  में बंटी रही है| अभिजात्यों, उच्‍च मध्‍यम वर्ग  के लिए उनकी हैसियत के मुताबिक महंगे और साधन संपन्न स्कूल, मध्‍यम वर्ग तथा गरीबों व मेहनतकशों के लिए सरकारी व अर्ध सरकारी स्कूल जिनकी उपलब्‍धता, गुणवत्ता लगातार संदिग्‍ध रही है, कभी धन के अभाव में तो कभी लचर ढांचों के कारण तो कभी गैरजिम्‍मेदार अधिकारियों या अकुशल शिक्षकों की भीड । विडंबना यह है कि देश की तीन चौथाई आबादी के लिए बने सरकारी स्कुलो की दुर्दशा और नीजि स्‍कुलों की रूपयों मे हांसिल सुविधा और गुणवता नीतिनियंताओं को दिखाई नही देता । पांच सितारा अंग्रेजी स्कूल हैं जो सुनिश्चित सर्वोच्‍च नौकरी या स्‍थापित कार्पोरेट सेक्‍टर अवसर के प्‍लेटफार्म का काम करते हैं जबकि सरकारी स्‍कुल आपके मजदुर या मैकाल का बाबु बनने की गारंटी। शिक्षाविद प्रोफ़ेसर कोठारी के शब्दों में, अमीरों के लिए शिक्षा और गरीबों के लिए साक्षरता'- वर्तमान में शिक्षा के मौजूदा ढांचे की यही तार्किक परिणति है।
निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने की दृष्टि से शिक्षा का अधिकार कानून बनाया गया, लेकिन निजी स्कूलों की दहलीज पर जाकर यह दम तोड़ता नजर आ रहा है। शिक्षा ही एक ऐसा माध्यम है जो व्यक्ति को निजी स्तर पर सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक क्षेत्रों में प्रगति व स्थापना के लिए ताकतवर बनाता है। इसलिए नीति-नियंताओं व सत्ता संचालकों का यह उत्तरदायित्व बढ़ जाता है। समाज के इसी मकसद पूर्ति के लिए संविधान की धारा 45 में दर्ज नीति-निर्देशक सिद्धांत सभी के लिए शैक्षिक अवसरों की समानता तय करने का प्रावधान प्रकट करते हैं। वास्‍तव में शिक्षा के कानून के छेद स्कूली शिक्षा के बाजारीकरण और निजीकरण के लिए नए दरवाजे भी खोलते कर निजी व अंग्रेजी स्कूलों के हित पोषित होते है। सरकारी स्‍कुलों में गुणवत्‍ता की स्‍थापना की जिम्‍मेदारी तय नही होती ना ही अच्‍छे परिणाम देने वालों को सम्‍मान, मेरे 26 साल के अनुभव एक शिक्षक के रूप में काफी कडवे है। जबकि नीजि शालाओं में अच्‍छे कार्यो को सम्‍मान और भरपुर दाम हॉसिल होता है। सरकारी शालाओं में कार्य से पुरी तरह विरक्‍त या पुरी तरह कार्यरत दोनो के लिये एक ही माप दण्‍ड होतें है।  जब शासन के शतप्रतिशत मंत्री, सासंद, विधायक, समस्‍त अधिकारी, नीतिनियन्‍ताओं, पत्रकारों  तथा व्‍यापारी और कार्पोरेट के बच्‍चे प्राइवेट स्‍कुलों मे पढतें हों तब, सरकारी शालाओं में क्‍या हो रहा है, क्‍या होना चाहिए इस की फिक्र उन्‍हे क्‍युं रहेगी यह विचारणीय विषय है। युं  भी सरकारी स्‍कुलों से कितने आई ए एस, आई पी एस, आई एफ एस निकलतें है जो बाद में नौकरी में आनें के बाद सरकारी स्‍कुलों की दुर्दशा पर चिन्‍तन करके उन्‍हे दुर करने का सार्थक प्रयास करेंगे। सरकारी स्‍कुलों में शैक्षणिक सामाग्री का अकाल, अधोसंरचना का अभाव, छात्रों को सुविधा की कमी, रचनात्‍मक कार्य करने का अवसर एवं प्रोत्‍साहन का अभाव, पदोन्‍नति के लचर मापदण्‍ड, अधिकारियो का धनात्‍मक सहयोग की कमी  जैसी समस्‍यायें तुलनात्‍मक रूप से शिक्षक एवं छात्र दोनों  की क्षमताओं को असफल कर उन्‍हे कुण्ठित कर देती है ।
शिक्षा के अधिकार कानून के दांवपेंच में उलझे निजी स्कूल संचालक सरकारी स्कूलों की शिक्षा को कोसते हुए अपने स्कूलों में बेहतर सुविधाएं देने का दम भर रहे हैं। शिक्षा के अधिकार कानून के तहत 25 प्रतिशत आरक्षण में बीपीएल परिवारों के बच्चों को दाखिला देने के मामले में कानून के नियमों पर नजर गड़ाई जा रही है। पहला मुद्दा यही है कि आरक्षण के तहत दाखिला लेने वाले बच्चों की फीस कौन देगा। इस कानुन लागु कराना एक बहुत बडी समस्‍या है देखते है बिल्‍ली के गले में घण्‍टी कौन और कब बान्‍धेगा ।

टिप्पणियाँ

  1. जब तक शासन के शतप्रतिशत मंत्री, सासंद, विधायक, समस्‍त अधिकारी, नीतिनियन्‍ताओं, पत्रकारों तथा व्‍यापारी और कार्पोरेट के बच्‍चे प्राइवेट स्‍कुलों मे पढतें हों तब, सरकारी शालाओं में क्‍या हो रहा है, क्‍या होना चाहिए इस की फिक्र उन्‍हे क्‍युं रहेगी................सही कहा |

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