कविता - मेरा बस्तर - 3


मेरा बस्तर -3
क्या तुम उसे दे पाओगे
उसके होठों की स्वतंत्र हंसी
उसके ऑखों को
एक विशाल स्वप्न
क्या तुम उसे दे पाओगे
एक विशाल स्वप्न को
साकार करने की ललक
उसे बना पाओगे
संघर्ष के साथ निखरा
कल का खरा सोना
नही- नही
तुम दे सकते हो
सिर्फ और सिर्फ
पढने का सरकारी क्षति पुर्ति भत्ता
कुछ बदरंग पुस्तकें
एक फटी हुई टाटपट्टी
टुटी खपरैल से झांकते धुप पर
उंघता हुआ देश का भविष्य
कुर्सी पर बेजार बैठ
दसख्वत और तंख्वाह का
हिसाब रोज- रोज दोहराता
थका पका अपने आप से बेजार
गुरुजी
तुम दे सकते हो सिर्फ इतना
तुम दे नही सकते ? अपने पॉव में खडे होने की ललक
अपने रास्ते
खुद तलाशने की कसक.
तो क्युं खडा कर रहे हो ? एक बरगद के पौधे को
सारे सहारों मे पाल कर
बना रहे हो
एक रीढ विहिन वल्ल्ररी
क़्या यह नही है ?
कल के विशाल बरगद की हत्या.
किस्तों में
वो भी आज
मुकम्मल.

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