कविता -- तो क्या देश आजाद हो गया ?

तथाकथित आजादी के बाद
जनता के हित में
Bastriya - spider
उन्होंने बड़ी ही विरक्ति से
जनतांत्रिक होकर नेता बनने का निर्णय लिया
आम आदमी, गरीबी, असमानता  
जैसे अंतत: प्रसंगों से
तटस्थ और असंग होकर
युद्ध और शान्ति के मध्य
कुर्सी, बैंक और ज़िंदा बोटी
का जिन्हें सहारा है: वे सब
जो खद्दर की परिभाषा गढ़ते, वे
कई दुकानों में महीन खादी तलाशते  
भीड़ की भूख को पालतू बनाने
पुरे कुनबे के साथ व्यस्त है 
अपने शर्म को उलीच
तमाम तरह के मुहावरे जब
ठंडी खून के भरत पुत्रो के
जांघ में रेंगते हो तब 
अक्सर मेरे सामने एक प्रश्न खडा होता है
गांधी ने चौथे बन्दर के बारे में क्यों नही सोचा ?
जिनके पास ताकत थी
जिनके पास दाम थे  
जिनके पास विचारधाराओं की विष्ठा चांटती भीड़ थी
उन सब की बदचलन इच्छाये कुर्सियां बन गयी
और ये
जयराम पेशा लोकतंत्र उनका पहरेदार
तो क्या देश आजाद हो गया ?
वो जो उम्मीदों से सर उठाये थे
उनकी गर्दन अकड़ गयी जब
तब उन्हें कैसे बताऊँ
जब लोक चेतना
सड़क के क्रमबद्ध गड्ढो की तरह हो तब
न्याय आसानी से बाज़ार के कोने में मिल जाता है
वैसे ही
कम उम्र से झिल्ली कबाड़ बीनते
ऊबे हुए लोगो के लिए
स्वतन्त्रता का अर्थ
व्यर्थ ही अर्थ ढूंढते निरर्थक 
शब्दों का अनुपयोगी व्याकरण है
क्या कहूँ जब
मेरे खुद के ज़िंदा होने के वक्तव्य से
मै भी असहमत हूँ, तब
क्या देश आजाद हो गया ?
कोई मुझे बता सकता है क्या ?  
क्या अलग-अलग क्लान के भेडियो का
एक साथ भूंकना 
आम सहमती कहलाता है ? इस लोकतन्त्र में
मेरे मोहल्ले के भदेश बच्चों के एक दल 
हँसी ठिठोली में, एक दुसरे के पीठ खुजाते
अलग अलग बंदरो प्रजाती उप प्रजाती के इलाके को
“संसद” के नाम से पुकारते है
और बंदरो को ? मैंने ने पूछा नही
अक्सर मेरी थकी हुई नींद के सपने में 
संविधान की पुस्तक के जिल्द के वे तीन सिंह
भेडियों में बदलने लगते है
उनके दांतों और आँखों का लाल रंग से
खून टपकने लगता है
खून धीरे धीरे हिन्दुस्तान के नक्से में
फ़ैलने लगाता है
इसे रोकने के तमाम तरह के दावे करने वाले वे
मंदिरों में घन्टे बजाने में व्यस्त है 
उनके सपोले मधुशालाओं में गिलास टकराने में 
अब क्या होगा ?
संसद मेरी थकी हुई नींद के सपने में
एक जाल में बदलने लगता है 
सफ़ेद कुरते पायजामे 
इस जाल पर आम आदमी को ताकते व्यग्र मकड़े 
में बदलने लगते है | 




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