कविता - खिड़की के बाहर एक दंतेवाड़ा

जिन्दगी
खिड़की के पीछे से देखती है आकाश     
आखें मुस्कुराते हुए  
धुंध को भेदना चाहती है
लांघना चाहती है सीमाएं
खिड़की के बाहर,
खिड़की के बाहर रौशनी है
खुली हवा है
सपने है
मन कहता है
आकाश नीला है
आकाश अनन्त है
माना मेरे कदम छोटे है
पर  तय कर लूँगा दूरी
बेड़ियाँ , कड़ियाँ
निरर्थक है
बाहर का कलरव
बाहर ढाल में  कलकल है
संगीत हर तरफ पल पल है
तुम्हारे बातों में छल है
माना मेरा आज नहीं
पर कल है
माना  तुमने दरवाजे बंद कर रखे है
पर खिड़कियाँ खुली है  
खिड़की के पीछे से देखती है आकाश
आखें मुस्कुराते हुए
धुंध को भेदना चाहती है  


                                                                                  

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