कविता - बस्तर का बैलाडिला


खुद रही है
लगातार-लगातर
बैलाडिला की श्रृंखला
फौलाद का यह पहाड
उगल रहा है फौलाद लगातार-लगातार
निगल कर फौलाद
उगल रही है कम्पनियॉ लगातार-लगातर
नोट-नोट और नोट
सरकारें बदल रही है लगातार-लगातर
नोटों से वोट
पेरिफेरियल विकास के
आकडों के बोझ में
दबा पहाड के निचे का
“निचले तबके” का आदमी
समझ नही पा रहाहै
आकडों और विकास की
बीच की दुरी को
आकडों से प्रदर्शन
से बाहर
बैलाडिला पहाड से
उतरती
शकनी नदी का पानी
विकास, राजनीति एवं संतुलन से परे
रणनीतिकारों के सोच से परे
लाल होता जा रहा है
काला लोहा
लाल आंसु रो रहा है ?
या यह पहाड अपने
मर्दन पर
रक्तिम स्ख:लन कर रहा है
छोटे-छोटे दिमागों में
बडी-बडी लालच लिये
खरोच रहे है लोग
धारवाड की श्रृखंला ( बैलाडीला पर्वत श्रृंखला )
धार खोते-खोते
धारवाड लगातार-लगातर
धार देता जा रहा है
जंगल के मस्तिष्कों
आदमी के चुप को
सर झुकाये खडे सागौन
का मौन क्रन्दन
बैलाडिला की श्रृंखला का मौन क्रन्दन
बर्राता है रह-रह कर
सुनो यहॉ आदमी चुप है
चुप आदमी कें सांसों के
लोहार के धौकनी में
बदलने से पहले
पत्थरों और पेडों का
बयान ले लो  देर हो जाय्रेगी
घटते पहाड, लगातार
निचे गिरते भु-जल का स्तर या
जेब भर रहे लोगों के गिरते नैतिकता का स्तर
भर रहा है रह-रह कर
छोटे-छोटे दिमागों में
यह सुखा,
सुखे विचार
रह-रह कर जंगलों का,
आदमी का हरापन मर रहा है
लगातार-लगातार

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