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वो तितली चाँद जुगनू गज़लें ये किताबें

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jaybastriya - एक सुबह उन आँखों के शबनमी  बूंदों को देखा है इन लम्हों में मैंने आसमां को समेटा है दूर तक पीछा करता  वो अधुरा चाँद है उसकी चांदनी भी इक भरोसे ने लुटा है मै दरिया हूँ  बस समन्दर मेरी मंजिल पर हसींन मोड़ ने हर मोड़ पर रोका है कागज पर लिख इश्क खूब मिटा दिया इश्क ने मुझे बस इतना  दिया धोखा है गुजरा क्या चाँद मेरे शहर से लुट गया इस बस्ती ने किया हर इक से धोखा है वो तितली चाँद जुगनू गज़लें ये किताबें दुनिया में मुझको बस इतने ने रोका है मुख्तसर सी बात है सवाल-ए-हक़ 'नादाँ' इस मुख़्तसर सी जिद में खुद को झोंका है

तवायफ़ और सियासत में ये फर्क है यारों ...........

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photo-Jaybastriya तवायफ़ और सियासत में ये फर्क है यारों तवायफ़ रिज्क से ये सियासत लुट खाती है बड़ी रंगीन तबीयत है वतन में इस खादी की हादसों का मजमा लगा पूरा लुत्फ़ उठाती है छीन कर रोटी हम मुफलिसों की जलालत से हमारी बेबसी को जहालत इल्जाम लगाती है सूखे होंठों और भूखे आँखों के हर प्रश्न पर ही सियासत नई बगावत का इल्जाम लगाती है किताबों में रिवाजों में कायदों का लहू बिखरा तमगों औ तिजोरी का बस ये भूख मिटाती है पसीने की हर बूंद चमके बस इनके आँखों में मेहनत से थके कांधो पर ये बाज़ार उगाती है तहरीरों वादों और इरादों का कागजी इन्कलाब रहनुमाओं के उगाल से हर नाली बजबजाती है जेहनो में मुद्दे उगाती सियासत है बहुत ‘नादाँ’ ये अश्क-ओ-भूख भी पत्थरों में आग लगती है 15 अगस्त 2015 कभी-कभी कुछ लिखता हूँ ...... आज शहीदों को सलाम करने के बाद ...... स्वतंत्रता दिवस की शाम को दिल करता था कुछ उल्लास से भरा लिखूं .......लाख कोशिश की ......पर अन्दर का दर्द ही तो कविता बनती है |..........

जीते-जीते जीना आ जायेगा

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जीते-जीते जीना आ जायेगा जख्म को सीना आ जायेगा मुझ चिड़िया को मुड़ना बस बाज़ो को पसीना आ जायेगा जय बस्तरिया 7 महफिल का सलीका सीखा जो यूँ आँखों से पीना आ  जाएगा साकी नज़रे हम तक भी पहुँची अब इन हांथो मीना आ जाएगा यूँ नजरों-नजरें हमसे ना खेलो उन आँखों में हीना आ जायेगा तेरे खंजर का मुक़ाबिल पूछे तू हर  हाल ये सीना आ  जाएगा मेरे शहर की तासीर यूँ है 'नादाँ ' मेरे अन्दर भी कमीना आ जाएगा

ना खौफ़-ए-दुनिया है मुझे ना खौफ़-ए-खुदा सा लगे है

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कोइ नाजुक रग टुटा सा लगे है वो गैर ही सही  रूठा सा लगे है ना बेताल्लुकी का दावा है उसे ना मुझसे कहीं जुदा सा लगे है jay bastriya -Baster ना  खौफ़-ए-दुनिया  है  मुझे ना  खौफ़-ए-खुदा  सा लगे है उससे घर का पता क्या पूछूं अपनी गली में गुमा सा लगे है फिर सबा महकी मेरे  गाम की फिर हर गज़ल सुना सा लगे है उस वादे पे एतबार क्या  किया उसका हर वादा झूठा सा लगे है किस्सा-ए-लत-ओ-आदत "नादाँ' नावाकिफ लफ्ज़ों तर्जुमा सा लगे है