ग़ज़ल - या इश्क ने अब अपनी सूरत सियाह कर लिया
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उनके शौक़ के लिए खुद को तबाह कर लिया
खुदा ना बन जाए सोच कुछ गुनाह कर लिया
वो जुल्फे सँवारे फिर अंगड़ाई ले या मुस्कुराए
क़यामत के पहले, शहर को आगाह कर दिया
नजर ना लग जाए मेरे जुनून को नाकद्री की
यही सोच हर हंसी के बाद एक आह भर लिया
हुश्न की सूरत ओ सीरत के फासले बढ़ने लगे
या इश्क ने अब अपनी सूरत सियाह कर लिया
दोस्तों की दोस्ती से तंग आकर अब 'नादाँ'
दुश्मनों को अब हमने खैर-ख्वाह कर लिया
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