कविता - हर तिमिर के बाद पुरब खिलता है


वो जब समुद्र के किनारों पर
बेकरार लहरे टूट रही थी,
तब , हां तभी
मलंग तेरे एकतारे का तार टुटा
जब तेज़ हवाये ताड के पेड को
पगडन्डियों पर झुका रही थी
नमकीन रेत के साथ उडते पत्ते
मुझे बता रहे थे
जीवन
ठंडी हवा के साथ-साथ
बहती खुश्बू का नाम ही तो है
सौन्धी खुश्बू जैसे
हर तिमिर के बाद
पुरब खिलता है   
जब आंखो को
मन का साथ मिलता है
आज 
पूरब खिल रहा है
ज़रा-ज़रा, गुलाबी-गुलाबी
फिर सिंदूरी–सिंदूरी
रौशनी
तिमिर के बाद की 

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