आइना या अक्स ये मुकम्मल न हुआ

जाने किसकी तलाश में सफ़र तमाम करते रहे
जीने की आरजू लिए हम हर मोड़ पर मरते रहे

इश्क़ में हसरतें मुठ्ठी से रेत सी फिसलती रहीं
उम्र भर ख्वाहिशों का खाली मकान भरते रहे

आईना या अक्स किससे ये मुकम्मल न हुआ
बेमक़सद ही हम ये किस किस से लड़ते रहे

जुर्म कर हर जुर्म बाउसूल कुबूल किया हमने
अपने ही उसूलों की आग में हमही जलते रहें

जुगनू तितली ख़्वाब नागफनी सब ने खेला यूँ
जीतने साँचे मिले उतने ही साँचों में ढ़लते रहे

बड़ी नादान सी फितरत रही है हमारी भी 'नादाँ '
सिर्फ ज़ख्म अजीज़ थे हम जख्मों में पलते रहे

जयनारायण बस्तरिया 'नादाँ '©


टिप्पणियाँ

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    आपको जन्मदिन-सह नववर्ष की हार्दिक मंगलकामनाएं!

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  2. शुक्रिया, कविता जी....
    क्षमा, विलम्ब से आपके टिपण्णी का जवाब देने के लिए|

    जवाब देंहटाएं

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