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कविता - व्हाईट कालर

शेयर बाज़ार के गिरने पर ही जो, ग़मगीन लगता है   बड़े लोगो के जलसे में बड़ा संगीन लगता है वो देखने में कितना ज़हीन लगता है उसके रसोई में हमेशा चांवल महीन लगता है पर उसके आईने को वो बड़ा चरित्रहीन लगता है आखिर आईना है, आईना देखने के बाद बरबस वह खिड़की के बाहर हर बार थूकता है हर बार क्या उसके अंदर से या आईने से उसके चेहरे पर टांग उठा कर कोई मुतता है ? नीचे दिया सवाल मेरे दिमाग को सुतता है दिल और व्यवस्था के दरवाजे के बीच की दूरी बेहिसाब क्यूँ है ? मेरी मजबूरी लाजवाब क्यूँ है ? आखिर गरीब की लड़की को आता शबाब क्यूँ है ? लोकतंत्र मे खुले आँख मतदान करना खराब क्यूँ है ? जब रीढ़ की हड्डी खों चुकी एक भदेस भीड़ के फूहड़ इरादे सा लोकतंत्र, जिसे दिशा देता वो सही यह जहीन शख्स, कहीं रोटियों से खेलता धूमिल का “तीसरा आदमी” तो नही  

अगज़ल - वो मोहसिन हम उसके हबीब ‘नादां’

अपने वादे पे   आये तो बात बने वो भी कभी निभाए तो बात बने इश्क और चांदमारी दीगर बात है हुजूर को समझ आये तो बात बने मुनासिब वजह नही ये रुसवाई की मुकम्मल खता बताए तो बात बने ये मुख़्तसर सा फ़साना है निभाना वो कुछ दूर तक आये तो बात बने जुल्फों तक हदबंदी है इन हांथो की रुखसार तक पहुँच पाए तो बात बने वो मोहसिन हम उसके हबीब ‘नादां’ वो कभी नजरें झुकाए तो बात बने