कविता - तुम्हे कितना यकीन है
तुम्हे कितना यकीन है
वक्त के साथ
तुम्हारे आदर्शवाद नही बदलेंगे
तुम्हारे आदर्श और स्वार्थ
के बीच की जंग में
तुम्हारी आत्मा विजित होगी
इस स्वप्न और
तुम्हारी नीदं के
होने को भंग
सिर्फ एक पल की दुरी है
समस्त नैतिकता,
आदर्श और पुरुषार्थ
सब की एक मजबुरी है
कब-कब
कहाँ-कहाँ
क्या-क्या
जरुरी है
यह तुम नही तय करोगे
और तुम्हे कितना यकिन है ?
तुम्हारे पाँव के नीचे जमीन है ?
सच और झुठ की हदें नापने
तुम्हारी व्यवस्था में
एक सच्चा अमीन है
वो संगठित लोगो का तंत्र
तुम्हारी आत्मा को नोंच-नोंच
तुम्हारी आत्मा को नोंच-नोंच
निर्धारित दरों पे कमीशन
की तरह बांट खायेगा
और तुम्हारे हाथ
लोकतंत्र की खाक आयेगा
अरे सुनों
अब तो कर लो अपनी नीदं भंग
शुरु करो एक नई जंग
कर दो
कापुरुष व्यवस्था का
अंग-भंग
उठो आओ मेरे साथ
यदि तुम्हे अपने पर यकीन है
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