ग़ज़ल - धुप की छलनी लिए हम प्यास को निथारते रहे
नापता रहा मै रोटी और भूख
के बीच की दूरियाँ
लुटा कर अपनी दुनिया चढ़ा हमें उसुलो का नशा
हासिल-ए-नाकद्री मिलती रही कर्ज ये उतारते रहे
साजिशो का काम या मेरी किस्मत
की बाजीगरी
हांथो की लकीरे बदलती रहीं लकीरे निहारते रहे
ताउम्र की जद्दोजहद है ये
रिज्क की जद्दोजहद
धुप की छलनी लिए हम प्यास को निथारते रहे
आवाम के दम पर वो उगाते रहे नोटों की फसल
सियासत-ओ-वक्त की गल्तियाँ
हम सुधारते रहे
फिक्रो-रंजो-मलाल जब अपने
नसीब हों ’नादाँ’
सियासतदां और दलालों की भूख हम संवारते रहे
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