दिल-ए-खुशफ़हम
फूलों के मौसम में ये क्या गुलशन को आस है
दीवारों पर बैठी तितलियों की बेबस उबास है
इस दौर चाहा किसे कब क्या मुकम्मल हुआ
उदास खड़े जंगलों को भी आग की तलाश है
दिल-ए-खुशफ़हम को इतनी तसल्ली खूब है
वो हुस्न ओ जमाल भी मुझसा कहीं उदास है
वफ़ा परस्त रहे हम सारी उम्र इस दौर में भी
हरीफेजाँ से ये दिल्लगी अकीदत की बात है
अबके फ़स्ले बहार हर गुल कुछ लहू जर्द है
उस उफ़्क से हर गुल को मेरे खूँ की प्यास है
ना रतजगे ना बेकरारी ना कोई तलब 'नादाँ'
इस गाम में क्या ये तर्के मरासिम की रात है
#नादाँ_बस्तरिया #JNB
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