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सुन जरा

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वजह -ए-दर्द-ए-जिंदगी

कहते हैं मोहब्बत दिल के किस्सों की किताब है  उसका सफा चेहरों की ज़रूरत को मुख़ातिब था  तू कातिब है मेरी किस्मत के फरेबों का ओ खुदा तू क्या जाने हर खेल मेरा खुद के मुख़ालिफ़ था  ता उम्र तलाशा किया मैंने वज़ह-ए-दर्द-ए-जिंदगी  क्या खूब ये दर्दे इश्क़ ही हर दर्द का मुहाफ़िज़ था  जिंदगी थी आवारगी या आवारगी जिंदगी बन रही बेपता मंजिल थी मेरी ये सफीना खुद मुसाफ़िर था  तेरा रूह  इश्क़ के इबादत-ओ-सज़दे में था 'नादाँ' नसीब फ़रेब-ए-हुस्न की अक़ीदत से मुनासिब था #jnb #नादाँ_बस्तरिया © 30 जुलाई 2020

यह जो कविता है ....

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मेरे इश्क़-ए-नाकाम का किस्सा भी कितना हसीन था ...

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कुछ खामोशियाँ दर अस्ल बेआवाज़ होती हैं...

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जाने किसकी तलाश में

जाने किसकी तलाश में सफ़र तमाम करते रहे जीने की आरजू लिए हम हर मोड़ पर मरते रहे इश्क़ में हसरतें मुठ्ठी से रेत सी फिसलती रहीं उम्र भर ख्वाहिशों का खाली मकान भरते रहे आईना या अक्स किससे ये मुकम्मल न हुआ बेमक़सद ही हम खुद से वो लड़ाई करते रहे जुर्म कर हर जुर्म बाउसूल कुबूल किया हमने अपने ही उसूलों की आग में हमही जलते रहें जुगनू तितली ख़्वाब नागफनी सब ने खेला यूँ जीतने साँचे मिले उतने ही साँचों में ढ़लते रहे बड़ी नादान सी फितरत रही है हमारी भी 'नादाँ ' सिर्फ ज़ख्म अजीज़ थे हम जख्मों में पलते रहे जयनारायण बस्तरिया 'नादाँ '©