कविता - जाहिर है तुम जिरह करोगे !
जिरह जाहिर है कल तुम मुझसे जिरह करोगे कोचोगे, नोचोगे, भभोडोगे नापोगे, तोलोगे और जानना चाहोगे मै अखबार तो नही मेरे अन्दर उबलती भीड तो नही कहीं मेरी ऑखें पुरी खुली तो नही तुम बार-बार मुझे झकझोर मेरे गिरेह्बान पकड कर बार-बार पुछोगे मेरी तमाम कविता, मेरे तमाम सरोकार आम आदमी से क्युं ? जंगल से क्युं ? मिट्टी से क्युं ? मुझे नफरत बाज़ार से क्युं ? हर पांच साल में चेहरे बदलते सरकार से क्युं ? मुझे इतनी नफरत लगातार बढते तुम्हारे कुनबेदार से क्युं ? जहिर है कल तुम मुझसे जिरह करोगे कोचोगे, नोचोगे, भभोडोगे जानना चाहोगे मुझे इतनी नफरत आजादी के बाद उगाये गये नये-नये वादों, तुम्हारे तर्कहीन राजनीतिक विवादों हमारे जडों को बॉटते तुम्हारे घृणित इरादों से क्युं ? जिरह तुम्हारी आदत है या लत है ? जिरह, जिरह, जिरह हताशा तुम्हारे ऑखों से झलकती है लेकिन जिरह करने की जिद है तुम्हे तुम राजा हो तुम कानुन हो तुम व्यवस्था हो तुम संसद हो तुम्हारी जिद जायज है सरासर जायज है देखो जरा गौर से देखो हताशा तुम्हारे ऑखों से झलकती है तुम ऑखें नही मिला पा रह