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कविता - कविता नागफनी हो जाती है

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जब आज जीवन सरल एवं सपाट नही तब मेरी कविता से यह उम्मीद कैसे रखते है आप ? एक चाँद, इक लडकी, एक फूल पर कविता सरल सपाट कविता,  श्रृंगार रस की कविता की  और तब,  जब कविता मेरे लिए जीवन संघर्ष एवं प्रतिपल मृत्युबोध का नाम है भूख, रोटी और एक धोती के साथ एक टुकडे छत का नाम कविता है कविता मेरे लिये अनुभुति, चिन्तन यथा अभिव्यक्ति है मेरी कविता मेरा दर्द है तब बन्धे हाथों से और खुली आँखों से मै दिवारों के कानों से बचते हुए सोचता हूँ तुम्हारी दुनिया, मेरी दुनिया दोनों जब तरह-तरह की भाषा से पटी पडी हो जब जातियां, वर्ग और चमडी के रंगों के तरह तरह के परौकारो से अटी पडी हो जब मैदानों का चरित्र पहाडों को संक्रमित कर रहा हो तब हवा दिमाग में भर जाती है तब जंगल आँतों मे उग आता है तब स्तब्ध या क्षुब्ध कविता नागफनी हो जाती है तब भी आप मुझसे एक चाँद, इक लडकी, एक फूल पर कविता सरल सपाट कविता,  श्रृंगार रस की कविता की  की उम्मीद रखते है  

ग़ज़ल - धुप की छलनी लिए हम प्यास को निथारते रहे

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नापता रहा मै रोटी और भूख के बीच की दूरियाँ  गिरकर सम्हलने से पहले ठोकरे मुझे पुकारते रहे लुटा कर अपनी दुनिया चढ़ा हमें  उसुलो का नशा हासिल-ए-नाकद्री मिलती रही कर्ज ये उतारते रहे साजिशो का काम या मेरी किस्मत की बाजीगरी हांथो की लकीरे बदलती रहीं लकीरे निहारते रहे ताउम्र की जद्दोजहद है  ये रिज्क की जद्दोजहद धुप की छलनी लिए हम प्यास को निथारते रहे आवाम के दम पर वो उगाते रहे नोटों की फसल सियासत-ओ-वक्त की गल्तियाँ हम सुधारते रहे फिक्रो-रंजो-मलाल   जब अपने नसीब हों ’नादाँ’ सियासतदां और दलालों की भूख हम संवारते रहे

ग़ज़ल - देखना हम भुखे कब इन्कलाब ले आयेंगे

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खून में साँसों में इक इज्तेराब ले आयेंगे हम हर प्रश्न का, एक जवाब ले आयेंगे by Google  कब तक बंद करोगे ये दरवाजे खिड़कियाँ   देखना हम नई रोशनी नई आग लेआयेंगे खामोशी को गुश्ताखियों की जबां न कहो देखना हम भुखे कब इन्कलाब ले आयेंगे सूती के कपड़ो में जहां उगती ये लडकियां वहां नीद ना हो पर हम ख्वाब ले आयेंगे वक्त नजरअंदाज करता रहे हमारा वजूद तो उपरवाले से अपना हिसाब ले आयेंगे ये निज़ाम ये सरमाएदार काबिल है सब क्या ये आईने को कभी जवाब दे पायेंगे   रास्ते तराशना जिनकी फितरत है ‘नादाँ’ वो पत्थरों में फूल और शबाब ले आयेंगे

कविता - तुम्हे कितना यकीन है

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तुम्हे कितना यकीन है वक्त के साथ  तुम्हारे आदर्शवाद नही बदलेंगे तुम्हारी नैतिकता नही बदलेगी तुम्हारे आदर्श और स्वार्थ के बीच की जंग में तुम्हारी आत्मा विजित होगी इस स्वप्न और तुम्हारी नीदं के होने को भंग सिर्फ एक पल की दुरी है समस्त नैतिकता, आदर्श   और पुरुषार्थ सब की एक मजबुरी है कब-कब कहाँ-कहाँ क्या-क्या जरुरी है यह तुम नही तय करोगे और तुम्हे कितना यकिन है ? तुम्हारे पाँव के नीचे जमीन है ? सच और झुठ की हदें नापने तुम्हारी व्यवस्था में एक सच्चा अमीन है वो संगठित लोगो का तंत्र  तुम्हारी आत्मा को नोंच-नोंच निर्धारित दरों पे कमीशन की तरह बांट खायेगा और तुम्हारे हाथ लोकतंत्र की खाक आयेगा अरे सुनों अब तो कर लो अपनी नीदं भंग शुरु करो एक नई जंग कर दो कापुरुष व्यवस्था का अंग-भंग उठो  आओ  मेरे साथ  यदि तुम्हे अपने पर यकीन है

गीत - ठहर जा, ए मेरे अरमां, अधूरी ये कहानी है - चार

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ठहर जा , ए मेरे अरमां , अधूरी ये कहानी है वो हीर वो सोहनी वो लैला, बस ज़ुबानी है किस्सा-ए-वफा की ये मिसालें, ये किस्सों की बाँतें है कौन कहता है हुश्न को ये सब निभानी है इश्क की ये लाचारी, आग को कहते है पानी है तकल्लुफे हुश्न पर अब इश्क चलता था साफ़ जाहिर थी वो बैचेनी , वो पहलू बदलता था उसकी मजबूरी थी या वो यूँ भी चाल चलता था कभी आँखे मिलाता , कभी आँखे बदलता था कभी आँचल गिराता था , कभी गिरा कर सम्हलता था वो उम्र - ए - दौरां थी,  क़यामत  हरपल मचलता था वो आँखों के कोरों का पूछना , वो भौहों की तीरगी कैसी वो दूर जाकर मुड़ कर देखना , पास वो बेहद बेरुख़ी कैसी वो पत्थर की मूरत से , ये मेरी बंदगी कैसी दुश्मन-ए-जाँ से दिल्लगी कैसी लुट कर मेरा सकून-ओ-जहां अब वो ही कहते हो ये क्या किस्से कहानी है ठहर जा , ए मेरे अरमां , अधूरी ये कहानी है

गीत - ठहर जा ए मेरे अरमां, अधूरी ये कहानी है ..तीन

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मुस्कुराया देखा या देख मुस्कुराया क्या फर्क पड़ता है सितम जरीफ  क़त्ल से पहले कातिल क्या - क्या चाल चलता था उसका इश्क नए ज़माने का रोज़ चेहरा बदलता था इक मेरी आवारगी पर ना मेरा बस ही चलता था इस दर से उसके दर तक ये मुसाफ़िर बेबस ही चलता था चल चलें सफ़र को बस अब के चल निकलना है  खुदा को मुहँ भी दिखाना है , कुछ रस्मे दुनिया भी निभानी है ठहर जा , ए मेरे अरमां , अधूरी ये कहानी है मेरे दिल में दबे तूफ़ान को वो मेरी धड़कन समझते है जाहिर है मिरे गर्दिशे अय्याम को वो कम समझते है है सितम जरीफ पर खुद को मेरा हमदम समझते है आँखों में लिए ख़्वाब उस तेज़ाब का हम ना पलके है झपकायें तड़फ आँखों की या दिल की हम किसको बतलायें  कैसे कहे किसके राहे शौंक ने मुझे यूँ बेबस  है  बनाया  उड़ा कर आलम - ए - हवास मेरा , ना ठुकराया ना अपनाया खुदाया वो दर्द की दुनिया को कुछ कम समझते है अपने हर करम को मेरे दर्द का मरहम समझते है अपने नम आँखों की शरारत को वो अपना गम समझते है लुफ़्त - ए - किस्सा -- ए - गैरे वफ़ा ले , हमें वो कम समझते है उनका हर किस्सा कुछ नया है , पर हर्फ

गीत - ठहर जा, ए मेरे अरमां, अधूरी ये कहानी है...दो

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ठहर जा , ए मेरे अरमां , अधूरी ये कहानी है दिल की सुनाऊं या कहूँ जो ज़ुबानी है सुन सको तो ये किस्सा - ए - वफ़ा तुमको सुनानी है वो नज्म़ या गुल या जैसे डल झील की किश्तियाँ  वो शबाब की वो मस्तियाँ उजडती दिल की बस्तियां बरात - ए - नूर को फर्क क्या किसका घर ये जलता था होते क्या - क्या हादसे , जाने क्या क्या बदलता था नागफनी के बिस्तर में मै करवट बदलता था इस दिल का क्या , बात - बेबात मचलता था  वो कभी आँखे तरेरे है कभी आँखें फेरे है उगते सूरज को वो हांथो से घेरे है करे क्या अभी उसकी , ये चढ़तीं जवानी है ठहर जा , ए मेरे अरमां , अधूरी ये कहानी है 

गीत -- ठहर जा ए मेरे अरमां अधूरी ये कहानी है ..एक

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वो सुखी नदी की बैचेनी , कसमसाता मेरी आँख का पानी है ठहर जा , ए मेरे अरमां , अधूरी ये कहानी है उफ़क से उठती धूल कहती है , ये सूरज सारा दिन उबलता था धुप के सूखे पेशानी में , हर बूंद पल - पल मचलता था वो गुजरे करीब से और मेरा दिल दहलता था इधर बढ़ती थी मजबूरी , उधर वो केशर सा खिलता था कुछ चर्चे कुछ गुफ्तगुं , वो जो चाहे वो मिलता था वो चाल चलता था , सारा शहर हम पे बदलता था दिल की मानु तो तो चुप रहूँ या ये दुनिया को बतानी है ठहर जा , ए मेरे अरमां , अधूरी ये कहानी है  वो झांकती आँखे जुल्फों से , कुछ नेजों नश्तर सी  वो रफ्ता - रफ्ता नज़रे उठाना फिर जम कर बरसना  उनमें कुछ तेज़ाब , कुछ नूर , कुछ सोजें जवानी थी ठहर जा ए मेरे अरमां  अधूरी ये कहानी है 

कविता -- तो क्या देश आजाद हो गया ?

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तथाकथित आजादी के बाद जनता के हित में Bastriya - spider उन्होंने बड़ी ही विरक्ति से जनतांत्रिक होकर नेता बनने का निर्णय लिया आम आदमी, गरीबी, असमानता   जैसे अंतत: प्रसंगों से तटस्थ और असंग होकर युद्ध और शान्ति के मध्य कुर्सी, बैंक और ज़िंदा बोटी का जिन्हें सहारा है: वे सब जो खद्दर की परिभाषा गढ़ते, वे कई दुकानों में महीन खादी तलाशते   भीड़ की भूख को पालतू बनाने पुरे कुनबे के साथ व्यस्त है  अपने शर्म को उलीच तमाम तरह के मुहावरे जब ठंडी खून के भरत पुत्रो के जांघ में रेंगते हो तब  अक्सर मेरे सामने एक प्रश्न खडा होता है गांधी ने चौथे बन्दर के बारे में क्यों नही सोचा ? जिनके पास ताकत थी जिनके पास दाम थे   जिनके पास विचारधाराओं की विष्ठा चांटती भीड़ थी उन सब की बदचलन इच्छाये कुर्सियां बन गयी और ये जयराम पेशा लोकतंत्र उनका पहरेदार तो क्या देश आजाद हो गया ? वो जो उम्मीदों से सर उठाये थे उनकी गर्दन अकड़ गयी जब तब उन्हें कैसे बताऊँ जब लोक चेतना सड़क के क्रमबद्ध गड्ढो की तरह हो तब न्याय आसानी से बाज़ार के कोने में मिल जाता है व