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जुलाई, 2013 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

ग़ज़ल - ना मीना ना मय ना मयनोश की बाते करो

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छत पर चाँद और महफ़िल में वो बेहिजाब उस पर कहते हो हमसे होश की बातें करो उसने दिल लगाया, जलाया एक ही बात है ये जंग-ए-इश्क है हमसे जोश की बातें करो इश्क या परस्तिस के फर्क से नावाफिक है  कौन कहता है, हमसे मदहोश की बातें करो हमने जिया है पुरी शिद्दत, इस दुनिया को ना हमसे कोई नये फिरदोस की बातें करो   माना मदहोश है हम, पर होश की बाते करो ना मीना ना मय ना मयनोश की बाते करो

कविता - मेरी अधुरी इच्छाओं का रोज बदलता चेहरा

मेरी अधुरी इच्छाओं का रोज बदलता चेहरा एक आदमी का नही है जो यातनाओं के खिलाफ मुहं खोल सके लहलहाती हुई नग्न व्यवस्था को तौल सके ना इसमें समाधान की कला है ना यह संघर्ष पर पला है माथे पर पसीना इसके लिए बला है यह तो असंगठित क्षेत्र के मजदुर का वेतन है जो परिवर्तनधर्मी की भुमिका खुल के नही निभा सकता अपनी जात पर कभी   आ नही सकता आने वाले खतरों की गन्ध इसे चैन से जीने नही देती लेकिन बहुत तसल्ली के साथ फुटपाथ पर बिछा भिखारी सा कपड़े पर अपना सम्मान सजा बेच-बाच शिनाख्ती के अभाव में जी-खा लेगा आज तक संघर्ष के नाम पर सिर्फ अपने गले का फंसा बलगम साफ किया हो वही मेरी अधुरी इच्छाओं का बदलता झुलसता चेहरा शहीदो की सूची में पहले .... नाम लिखाने अब ..... वरिष्ठता के लिए आन्दोलन रत है जब भी मौका मिले असली ताकत की असली दवा जेब में रखकर सत्ता नशीनों के साथ मंच पर चढ़कर मुठठ्ठियां हवा में लहरायेगा मंच के नीचे दिहाड़ी पर बुलाये सपाट , मुर्दा चेहरो को तमाम वादों की पाठ पढ़ायेगा साथ-साथ मंच पर बैठे लोगों के भडूअेपन पर प्र

चन्द शेर - 'नादाँ ' बस्तरिया

चन्द शेर हवाओ में बसी जुल्फ की खुशबु हम से परवाने   जान पाते है वो क्या जाने जो खुद के कदमो के आवाज से धोखा खाते है आशिक-ए-आफताबी कर, आशिकी-ए-शबनम खून ठंडा कर देगी हक़-ओ-परस्ती कर, तेरी आवाज-ए-आवाम जुल्म मंदा कर देगी आज उसकी यादो ने हमें फिर रंगीन कर दिया हमने भी अपना दिल जला , खूब मनाई होली | उसने बड़ी बेदर्दी से मेरे दीवानगी को कुछ एहतराम किया बड़ी नफ़ासत से अफ़साना-ए-इश्क से मेरा नाम हटा दिया जुल्फे तेरी बिखर कर जलजला अख्तियार है   नदी को सावन ने जवां किया किसने कहा ये दूर रहकर भी तुम , दिल के कितने करीब हो . ये फ़ासले, ये बेताल्लुकी , सिर्फ दुनियादारी है   इतना आसान नही ये सफ़र तुम साथ चल सको दो कदम साथ चल, तुम भी यूँ रास्ते बदल लोगे जज्बा होना चाहिए ताकत खुदा दे ही देता है   तहे दिल की कोशिशो को वफ़ा दे ही देता है   

गज़ल - हम तेरे मजबूर है खुद मुख्तार कहाँ

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नये रस्म-ओ-रीत बना के देख लिया  तुमने हर हद अजमा के देख लिया आवारगी ही हमारी फितरत है पक्की तेरे दर जा के , ना जा के , देख लिया तेरी ज्यादती से भी हम मुक़ाबिल हुए अपना सब्र भी अजमा के देख लिया हम तेरे मजबूर है खुद मुख्तार कहाँ हर शुं दिल को भरमा के देख लिया तेरे दर से मयखाने तक की जिन्दगी अब हमने खुद इम्तेहां के देख लिया वो ही है, तासीर तेरे नज्म की “नादां” हर शेर गजल से उलझा के देख लिया

गज़ल - हम कहते है तब उज्र है दावा है दफा है

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पढे लिखों का है , शहर कितना जुदा है है इबारती दिवारें, पर कितनी सफा है। हम कहते है तब उज्र है दावा है दफा है कानून तब सिर्फ हम गरीबों पर खफा है पीठ पर ही लिखोगे हमारे हर इबारत अजब है जनाब, पर ये आपका नशा है बिजली गिरे तो सिर्फ मेरे ही घर पर अजब जायज उनका यह फलसफा है एक ही रास्ते , दोनो थे मिल कर चले तुमसे हुआ वफा  हमने किया जफा है जब चाहा रौशनी, रोशनाई में डूबो दी  तिजारत करने वालों का सब में नफा है क्यूं सुखनी है अबकी फसले मेरे गॉव की मुझे नही , पहाड के धुन्ध को सब पता है

कविता - दिल्ली अनन्त तिमिर है

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दिल्ली अनन्त तिमिर है  बार बार लगातार यह भुमि उंगली उठाकर कहती है हत्यारा उस ओर गया है उसकी उंगली दिल्ली के तरफ  उठी हुई है सदियों से सदियों के पुर्व से, सदियों तक इस दुनिया मे पश्चिम , उत्तर पश्चिम से हत्यारे आते रहे है। बर्बर हत्या लुट साम्राज्य धर्मो का रौदं, संस्कृतियो को रौद धर्म ध्वजा फहराते हुये व्यापार के पार  तलवारों के नोक पर सत्ता सजाते रहे दिल्ली हर बार असफल हुई रोकने में , प्रतिकार करनें में कराह , चीख , वि लाप , संताप , मौन, रुदन दिल्ली को सुनाई नही देते  क्रोध , घृणा , क्षोभ , छटपटाहट निर्मम ढगं से नकारती है, यह दिल्ली यह दिल्ली आमंत्रित करती है बर्बर हत्या लुट के साम्राज्य को  व्यापक क्रुरता को इतिहास से अब तक व्यापक त्रासदियों को युद्ध दिल्ली के लिए एक प्रणय है हार अर्पित करने वाला प्रणय हार अर्पित करने वाला प्रणय लाल पत्थरों का किला इतना लाल क्युं है ? सदियों से सदियों तक नैतिकता की हत्या और राष्ट्रधर्म के खुन का रंग संग को सुर्ख करता रहा इन पत्थरों को वहीं पर सत्ता, संसद और सडान्ध प

गज़ल - अदबी इदारो से खिंच लाये गज़ल को फकीरों में

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गुफ्तगुं में जुनूं और आँखों से खू टपकता है jay bastriya photo वक्त की शागिर्द है हम, नज़ाकत क्या करें शायरी के  नाम पे, तोहमत ही लगाते है हम तेरी शिकायत जायज है खिलाफत क्या करें वल्लाह तेरी नफ़रत मुझे नई जमीन देती है बिलाशर्त तेरे सामने हम, शिकायत क्या करें लज्जत-ए-वफ़ाई से दिल तेरा पिघलता नही तू ही बता तुझे मनाने को शराफ़त क्या करे हम तुझ पे आशना है और तू गैर की मुरीद मकतल-ए-इश्क में बता तुझसे मुरव्वत क्या करें बेच कर खुद को माँगा था, तेरा अश्क शर्तिया तू ही बता हमें इससे बड़ी तिज़ारत क्या करे अदबी इदारो से खिंच लाये गज़ल को फकीरों में हम कम सुखन इससे बड़ी हिमाकत क्या करे शिकस्ता है तेरी पैरहन-ए-जिन्दगी जब ’नादां’ खुद से बेज़ार वो किसी से, अदावत क्या करे    

गज़ल - ये कायदा, ईमान तेरे नादाँ बड़ी बातें बताता था कभी

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ना नज़र मिलाता था कभी ना रहगुजर आता था कभी   ना सलाम ना दुआ ही बस जां जिसपे लुटाता था कभी आशुफ्तां है ,  दिल मेरा बस जो यूँ   ही मुस्कुराता था कभी जालिम ने लूटा तसकीन से बेफिक्र घर आता था कभी तेरा कूचा  मेरा शिवाला है बुतखाना मै जाता था कभी सियासत ने रंग बदले मेरे आईने से घबराता था कभी ये कायदा, ईमान तेरे नादाँ बड़ी बांतें बताता  था कभी