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कविता - चलो लौटते है अपने जड़ों की ओर

जड़ जब विचार वस्तु बन जाए  तब कितनी अलोनी होती है संवाद की भाषा कब बाजार से बाजार तक जब विज्ञापन दर विज्ञापन बस उपर सिर्फ उपर व्यवस्था के विष वृक्ष की   कैनोपी पर फैली हो जब संवाद सिर्फ अपने-अपने जात में जब संवाद सिर्फ अपने घात में तब चलो  लौटते है  अपने जड़ों की ओर  अब जड़ो से जुड़े रहने का सुख हमें जड नही होने देगा     " जयनारायण बस्तरिया "

कविता - हर तिमिर के बाद पुरब खिलता है

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वो जब समुद्र के किनारों पर बेकरार लहरे टूट रही थी, तब , हां तभी मलंग तेरे एकतारे का तार टुटा जब तेज़ हवाये ताड के पेड को पगडन्डियों पर झुका रही थी नमकीन रेत के साथ उडते पत्ते मुझे बता रहे थे जीवन ठंडी हवा के साथ-साथ बहती खुश्बू का नाम ही तो है सौन्धी खुश्बू जैसे हर तिमिर के बाद पुरब खिलता है    जब आंखो को मन का साथ मिलता है आज  पूरब खिल रहा है ज़रा-ज़रा, गुलाबी-गुलाबी फिर सिंदूरी–सिंदूरी रौशनी तिमिर के बाद की