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कुछ रुबायत - कुछ रुबाइयां

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तुम भी होगे ये हंसी रात भी होगी तुम्हें मन्जुर हर बात भी होगी अभी तेरी मासूम चुप ही सही हैं उम्र आयेगा तो वो बात भी होगी  --- मैं हवा हू मुझे बिखरने से ना रोको कोई पहली बरसात हू बरसने से ना रोको कोई बुन्द -बुन्द हर  रग रग में समा जाउगां अपनी हद से मुझे निकाल फेको तो सही  ---- सारा उसुल जब तबाह हो जाता है कोरे मन का कागज स्याह हो जाता है इश्क होता है हर तहजीब से परे उम्र आती है ये गुनाह हो जाता है  -------

कविता - राजनीति प्रयोग के दौर का नाम है

नकाब  ये क्या कर रहे हो यार ? नकाबो के पिछे चेहरे मत ढुंढो  चेहरों के पीछे छिपे नकाबों को देखो  जरुरी नही आदमी का चेहरे के पीछे  आदमी हो  हो सकता है  सरकार हो ! राजनीति हो  कोई वादा भी हो सकता है  नकाब मत खोलना  सबकुछ इस तरह  से व्यवस्थित है  तुम्हे किसने कहा ?  तुम पुर्व अवगत हो ...  यह तथ्य मायने नही रखता सच लोकतंत्र जनपदो के इतिहास से  से पुर्व से चल रही प्रक्रिया है  जो जारी है ।  तुम सिर्फ पांच वर्षो में  सबकुछ पाना चाहते हो  पांच वर्ष मे ही संसद को  आज़माना चाहते हो  राजनीति प्रयोग के दौर का नाम है  कुछ सौ वर्षो मे हम  अपने सुखों के सैलाब के बाद  भारत से गरीबी ना सही  गरीब को दुर कर् देंगे ।

गजल - सिलसिला जख्म दर जख्म जारी है

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साभार  सिलसिला जख्म दर जख्म जारी है दामन भी मेरा  खुन-खुन  तारी  है कत्ल किया उसने इक मिरा ही नही उसका ये कारंमा शहर-शहर जारी है हमने मजबुरी से बेचे थे ईमान अपने उनकी तो यहॉ बाजार-बाजार यारी है खरीद लो ऑसमा अपना-अपना तुम  हमारे भी दामन का जर्रा-जर्रा भारी है नाहक हमने सुनाये तुजर्बे ऐहत राम से सुना लो तुम भी  अपनी-अपनी बारी है उलझेंगे कितने ओैर इस पेचों खम में उसने ये जुल्फें  रफ़्ता-रफ़्ता  संवारी है