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कविता - रायपुर शहर में खिड़कियां नही है

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मेरे आँखों ने मुझसे पूछा ज ब देख कर भी तुम्हारे विचार  नही बदलते ; तब खिड़कियां बनाने और बाहर देखने का अर्थ क्या है ? तुम्हारे विचार तुम्हारी जरूरतों से जब जुड़े हो तब बकवास की कुदाली चलाने की जरुरत क्या है ? देखो बाहर  देखो खिडकी से बाहर रायपुर ! नही; राजधानी बढ रही है कागजो में, स्टीमेट में जो लिखा है उस से कुछ कम, पर सड़कें जगमगा रही हैं, पाश कालोनियाँ बढ़ रही है बढ़ रहे है क्रेडिट कार्ड , चमकते मॉल मॉल में बढ रही है रौशनीयां बढ रही एस यु वी की संख्या मॉलों के सामने  वैसे-वैसे बढ़ रही है बड़े-बड़े बंगलो के किस्तें चुकाने के लिए स्मार्ट कार्ड के खर्चे में गर्भाशय निकालने का व्यवसाय वैसे-वैसे बढ़ रही है राजधानी से थोड़ी दूर से दंतेवाडा के कोंटा तक हसियाँ लिए घुटने भर पानी में खडे लोगो के घुटने का दर्द महुए बिनती चार घंटे से झुकी कमर अब कमान हो रही है बढ रहे है बाएं हांथो की अंगुठों में नीले स्याही के दाग बढ रहा है, कम होते जंगलो में शनै: -  शनै: अंधकार  इधर शहर में बढ रहे है बैंक, हुक्का पार्लर , गार्डन उधर मेरे गाँव में बढ रही है क्रिकेट, मो

कुछ रुबायत

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रुबायत ...... दर्द  हम अपना, कुछ इस कदर  बांटते है सपने आँखों में लिए यु सारी रात काटते है सदाये लौट आती है, मेरी वहाँ उस मोड से जहां  तेरी  आँखे, मेरी आवारगी ताकते है              ..... * .... ना आँखों में दर्द है, ना होंठो में दुआए है हमने अपनी हंथेली पर कांटे जब उगाए है बंद  गलियों से टकरा कर लौट आती  है मुझसे कही  मजबूर तो ये मेरी सदायें है                       .... * ......

नज्म - वो बे-खबर

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सा -गूगल  आरजूएं   हजार रखते है   पर हम, दिल को मार रखते है   वो आँखे, कलेजे पै वार रखते है   पर हम से दिल बेजार रखते है   वो आँखे है नश्तर जैसे ,  वार-ब-वार रखते है   हम में भी खुलुश कुछ कम नहीं इन नजर -ए -बेरुखी पर प्यार रखते है बेकदर वो हमसे बेखबर वो हमसे बेरुखी उनकी रोज-नामचा है हमारी क्या खता है यहाँ हर वजह बेवजह है   उन्हें आता क्या मजा है   कैसे कहे ? किससे कहे ?   अजब-अजब शुमार रखते है कैसे कहे वो हमपे प्यार रखते है हम है की आरजूएं   हजार रखते है पर हम दिल को मार रखते है