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अप्रैल, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कविता - आखिर कब तक ?

आखिर कब तक ? ------------------------ अनियंत्रित भावनाओं का उताप ओर कितनी बार पुनरावृतियां अप्रतिहत स्वरों की टंकार से अप्रतिहत स्वरों की गुजानों से झरते स्मृतियों के सुखे पत्ते की गुजरे असंख्य बसन्त के पग-पग , पल-पल प्रतिध्वनियां और कितनी बार बन पखेरूओं के परों की सरसराहट, हल-चल स्व-स्खलित होती भावनाओं का उताप बह रहा है या तेरे स्वर नाद का अक्षय कोष विदोलित हुं और कितनी बार मेरे चारों दिशाओं को भेदने यह यायावरी - यायाति निनाद कुछ-कुछ बैलाडिला श्रंखला की ढलानों पर उतरते कोहरे पर या तेरे धाविल दहकते दाडिम से कपोल पर ठहरी अजानी ओस की बुन्दे अंगार और ओस सब कुछ तो है मेरे चारो ओर यथावत यत्र-तत्र, सर्वत्र बस तु नही आखिर कब तक ? आखिर कब तक ?

कविता - एक भीड की प्यास

सुनो बाबुजी, सुनो बाबुजी हम देश नही है हम देशवासी नही है हम एक बडे जमीन के टुकडे में सदियों से चल रही शोक सभा में बैठी भीड है ह्मारे जांघों के उपर तक चढी सीड है जो हमारे अन्दर आग पैदा होने नही देती तुम दावे बडी-बडी करते हो हम पर ... जबकि असलियत यह है की हमारे अन्दर की पौरुषता दिवार पर टंगी वयस्क फिल्म की पोस्टर हो गई है जिसके निचले हिस्से पर एक हिजडे ने एक मुस्कुराया पान खाकर थुक दिया है थोडी दुर पर वह गान्धार की तरफ मुँह कर संसद के सामने ब्रिटिश कालीन लैम्प पोस्ट के उजाले पर कोक शास्त्र पर चर्चा करने में व्यस्त है ना सोचे कविता मे अजीब विन्यास है मेरी जुबान पर दुनियावी व्याकरण की खराश है तुम कह सकते हो यह बकवास है ; यह एक कुंठित का एकालाप है नही , यह नई धुन का कोरस है यह कोइ नई नैतिकता जगाने वाला   इश्तहार नही फर्जी आज़ादी रेडीमेड स्वत्ंत्रता सेनानी और रेडीमेड राष्ट्र पुरुषों के (सच्चों पर इतिहास नही लिखा गया) कहानियों के बाद की लम्बी नींद और     सुख के सपने कान्धो में लाद कैक्ट

कविता - बस्तरिया खुश है ?

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सुखी कौन है बस्तर में सुखराम , बुधराम, नडगु या ? प्रश्न वस्तुनिष्ट है उत्तर जरा गरिष्ठ है नही लम्बी फेहरिस्त है सच तो ये है यार बस्तर में सुखी है खुश है अफसर , ठेकेदार . पत्रकार या खादी के तरफदार बस्तरिया   दो रूपये के चांवल में खुश है मॅुह बन्द है , ऑख बन्द है , दिमाग का उपयोग करने मे दण्ड है कटते सागौन , झरते महुये बोरर कीट से छिद्रित वृक्ष साल इन सबसे बस्तर बेहाल बाकी लगे है यार   समेट रहे है धारे-धार बस्तर में सुखी है , खुश है अफसर , ठेकेदार , पत्रकार या खादी के तरफदार

कविता - महुये के फूल

महुये के फूल साल के फूल महुये के फूल तुम्हे खिलना है अनंत तक मेरे बस्तर में जरुरत नही गुलाब, चम्पा, मोंगरा तुम्हारी जिसे लगाना था गुलाब मेरे बालों में वह शराब पी कर मुर्गा बाज़ार में पडा है आज बाज़ार कल बीज पंडुम(आम की फसल का त्योहार), परसों करसाड(मेंला) उसके बाद बासी तिहार हप्तों ऑखें और होश नही खुलेंगे चम्पा, चमेली, मोंगरा के फूल उम्मीद मत रखना मुझसे मै तुम्हे सिर में लगाउंगी झरोखे से इठलाउंगी गागर सर पर रख बिना जरुरत, पानी लेने चुऑ (पानी का सोता) तक जाउंगी कोइ प्रेम गीत गाउंगी नही, नही बस्तर में आयतीत बारुद की गन्ध सब फूलों की खुश्बु दबा देती है अब तो फागुन भी          परसा(पलाश) के केशरिया फूलों के साथ जंगल में आग ले कर आता है जंगल में आग के धुयें में हर फूल मुरझाता है परब, झेला और ददरिया सारे प्रेम गीतो का दम घुट जाता है चम्पा, चमेली, मोंगरा के फूल सुनो पसीनें मे डूब जाओगें दब जाओगे जरुर मेरे सर में रखें खेत, जंगल, देवता और लकडी के बोझ में सुनो चम्पा, चमेली, मोंगरा के

कविता - जाहिर है हुसैन

जाहिर है हुसैन (कला के बहाने पत्रिका में बहुत पहले एक कविता पढने के बाद आज) जाहिर है हुसैन तुम्हारे बनाये चित्र करोडों के है जाहिर है हुसैन तुम्हारे बनाये गये चित्रों में घोडे है मर्दानगी के प्रतीक   माधुरी यौवन का प्रतीक है जे जे स्कुल ऑफ आर्ट ने तुम्हे चटक रंग विस्तृत स्ट्रोक वह 1935 की बात थी अब तक गुलामी रंगो मे ढल रही है तुमने चित्रो में टेरेसा, लता मंगेशर, इंदिरा सुफी फना, बका, क़्वाफ सभी है जाहिर है हुसैन तुमने इतिहास में जाकर देखा है    फैज़, गालिब के पास पुरे कपडे थें प्रजा हिन्दु थी या मुसलमान या प्रजा नग्न ? राजा शाही पोशाक, तलवार जाहिर है हुसैन भारत में आस्था जीवन दर्शन है आस्था मिथक नही सरस्वती, गंगा, यमुना, लक्ष्मी और दुर्गा रावण, हनुमान, सीता कृष्ण, कामधेनु भारत माता या तुम्हारी उंगलियॉ या तुम्हारे पुर्वाग्रह या विकृत मानसिकता के क्रेता आग्रह या तुम्हारी सोच कौन नग्न थे ? कौन नग्न है ? जाहिर है हुसैन उम्र के इस पडाव में स्तन, निस्तम्ब या स्त्रियॉ