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जनवरी, 2012 की पोस्ट दिखाई जा रही हैं

कविता - जाहिर है तुम जिरह करोगे !

जिरह जाहिर है कल तुम मुझसे जिरह करोगे कोचोगे, नोचोगे, भभोडोगे नापोगे, तोलोगे और जानना चाहोगे मै अखबार तो नही मेरे अन्दर उबलती भीड तो नही कहीं मेरी ऑखें पुरी खुली तो नही तुम बार-बार मुझे झकझोर मेरे गिरेह्बान पकड कर बार-बार पुछोगे मेरी तमाम कविता, मेरे तमाम सरोकार आम आदमी से क्युं ? जंगल से क्युं ? मिट्टी से क्युं ? मुझे नफरत बाज़ार से क्युं ? हर पांच साल में चेहरे बदलते सरकार से क्युं ? मुझे इतनी नफरत लगातार बढते तुम्हारे कुनबेदार से क्युं ? जहिर है कल तुम मुझसे जिरह करोगे कोचोगे, नोचोगे, भभोडोगे जानना चाहोगे मुझे इतनी नफरत आजादी के बाद उगाये गये नये-नये वादों, तुम्हारे तर्कहीन राजनीतिक विवादों हमारे जडों को बॉटते तुम्हारे घृणित इरादों से क्युं ? जिरह तुम्हारी आदत है या लत है ? जिरह, जिरह, जिरह हताशा तुम्हारे ऑखों से झलकती है लेकिन जिरह करने की जिद है तुम्हे तुम राजा हो तुम कानुन हो तुम व्यवस्था हो तुम संसद हो तुम्हारी जिद जायज है सरासर जायज है देखो जरा गौर से देखो हताशा तुम्हारे ऑखों से झलकती है तुम ऑखें नही मिला पा रह

कविता - खिड़की के बाहर एक दंतेवाड़ा

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जिन्दगी खिड़की के पीछे से देखती है आकाश      आखें मुस्कुराते हुए   धुंध को भेदना चाहती है लांघना चाहती है सीमाएं खिड़की के बाहर, खिड़की के बाहर रौशनी है खुली हवा है सपने है मन कहता है आकाश नीला है आकाश अनन्त है माना मेरे कदम छोटे है पर  तय कर लूँगा दूरी बेड़ियाँ , कड़ियाँ निरर्थक है बाहर का कलरव बाहर ढाल में  कलकल है संगीत हर तरफ पल पल है तुम्हारे बातों में छल है माना मेरा आज नहीं पर कल है माना  तुमने दरवाजे बंद कर रखे है पर खिड़कियाँ खुली है   खिड़की के पीछे से देखती है आकाश आखें मुस्कुराते हुए धुंध को भेदना चाहती है                                                                                     

कविता - मेरी कविता एक विद्रोह है

Google कविता विद्रोह मेरी कविता एक विद्रोह है विद्रोह पाषाणयुग से विस्थापित विचारों का आज प्रांसगिक होना शहर की हर गलियों में बिखरे होना , बढते बच्चो के बिखरी सी भदेस मुस्कानों में यु एस वी कारों के काले सीसों से झांकती मुस्कुराहटों में सदन की छाती छिल कर बाहर निकलते भुख मजबुरी के सौदागरो मुस्कानों में इसी मुस्कुराहट के प्रति एक विद्रोह है मेरी कविता एक विद्रोह है विद्रोह मेरी अपनी कविता, अपनी नपुंसक कमियों को छिपाकर भीड का सहारा लेकर अपनी पौरुषाता को प्रदर्शित करने वाले अर्जुनो के प्रति, सभी दर्दो को ढोकर मुझे अश्वथामा नही बनना तभी तो तेरी कविता विद्रोह करती है सारे छदम क़ृष्णों से जो हर रात रचते है एक नया महाभारत सुबह जिसका मंचन किया जा सकें हमारी सुखी पिंजर सी छतियों को रौद्तें हुऐ, मेरी कविता एक विद्रोह है एक विद्रोह हमारे मस्तको में खिचें भाग्य की समस्त लकीरों को मिटाकर नयें वाद की रचना कर्ने वालें नववादिंयों के विरुद्ध मेरी कविता एक विद्रोह है विद्रोह लक्षम्णपुरबाथे गाँव कि गलियों में बिछे शतरज के बिसात में गिरी अं

कविता - बस्तर का बैलाडिला

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खुद रही है लगातार-लगातर बैलाडिला की श्रृंखला फौलाद का यह पहाड उगल रहा है फौलाद लगातार-लगातार निगल कर फौलाद उगल रही है कम्पनियॉ लगातार-लगातर नोट-नोट और नोट सरकारें बदल रही है लगातार-लगातर नोटों से वोट पेरिफेरियल विकास के आकडों के बोझ में दबा पहाड के निचे का “निचले तबके” का आदमी समझ नही पा रहाहै आकडों और विकास की बीच की दुरी को आकडों से प्रदर्शन से बाहर बैलाडिला पहाड से उतरती शकनी नदी का पानी विकास, राजनीति एवं संतुलन से परे रणनीतिकारों के सोच से परे लाल होता जा रहा है काला लोहा लाल आंसु रो रहा है ? या यह पहाड अपने मर्दन पर रक्तिम स्ख:लन कर रहा है छोटे-छोटे दिमागों में बडी-बडी लालच लिये खरोच रहे है लोग धारवाड की श्रृखंला ( बैलाडीला पर्वत श्रृंखला ) धार खोते-खोते धारवाड लगातार-लगातर धार देता जा रहा है जंगल के मस्तिष्कों आदमी के चुप को सर झुकाये खडे सागौन का मौन क्रन्दन बैलाडिला की श्रृंखला का मौन क्रन्दन बर्राता है रह-रह कर सुनो यहॉ आदमी चुप है चुप आदमी कें सांसों के लोहार के धौकनी में बदलने से पहले पत्थरों और पेडों का बयान ले लो  देर हो